Sunday 30 November 2014

ईश्वर को नकारती हममे छिपी अपराधवृत्ति..

       
       बहुत छोटी सी कहानी है यह जिंदगी को सही दिशा देती, किसी गांव में एक समय बहुत बड़ा आकाल पड़ा, आकाल जब लंबा होने लगा तो लोगों ने ईश्वर की शरण में जाने का फैसला किया । धर्म के नाम पर उस गांव में सिर्फ एक चर्च था वो भी एक झोपड़े में, एक पादरी उसे चलाता था, बस यही कुछ था ।
         परेशानी में लोग उसी के पास पहुचे और अपनी व्यथा कही । पादरी ने कहां संकट तो विकट है, पर हमारे धर्म में सिर्फ प्रार्थना ही की जा सकती है सो यही करते हैं । एक सामूहिक प्रार्थना का आयोजन किया गया गांव के सभी लोगों के इकट्ठा होने लायक जगह झोपड़े में थी नही सो गांव के बाहर का टीला प्रार्थना स्थल के रूप में निश्चित किया गया तथा लोगों को वंहा इकट्ठा होने का आग्रह किया गया । 
          लोग नियत दिन समय पूर्व ही वहां इकट्ठे हो गये । तय समय पर पादरी छाता टेकते वहां पहुंचे, लोगों के सन्मुख हुये भीड़ को गौर से देखा और कहा भाई इस गांव में वर्षा होना मुश्किल है, लोग ईश्वर से बरसात की प्रार्थना करने तो आ पहुंचे पर किसी को ईश्वर पर यकीन नहीं है… कोई एक भी गांव वाला छाता लेकर नहीं आया ऐसे में ईश्वर भला उनकी क्या सुनेगा ?

रामपाल दरबार: सतलोक आश्रम हिसार..

रामपाल दरबार सतलोक आश्रम हिसार में पिछले तीन दिनों में जो कुछ हुआ वो पूरे देश ने देखा । अब जिस घटनाक्रम का समापन पांच मौतों से हो उसे तमाशा तो नही कहा जा सकता ! गंभीर विषय है ये तो इस पर चिंतन भी गंभीर ही होना चाहिये पर लोगों की अभिव्यक्ति तो मीड़िया के गिर्द ही घूमती है अब वो समय है कि इसपर हटकर ही सोचना होगा ।
ईश्वर भक्ति को कौन गलत कह सकता है, धर्म कोई भी हो मूलधारा में तो ईश्वर हैं पर पंथ में पंथप्रधान को हम ईश्वर से भी बड़ा बना देते हैं । सामाजिक पृष्ठ भूमि में तो लोगों के विषय भी अलग हैं विचार धारायें भी अलग है और इस पर वार्तालाप भी भिन्नता लिये होता है पर पंथ में ऐसा नहीं होता, विषय भी एक है व्यक्ति भी एक है और उसी एक की विचारधारा सभी पंथियों पर समान रूप से हावी होती है । समय गुजरते ईश्वर पीछे छूटता जाता है और पूरे पंथ में पंथ प्रधान उसकी जगह ले लेता है फिर जब अहंकार सिर चढ़कर बोलता है तो परिणाम देश, काल, परिस्थिती बदल कर यही होता है जो पिछले तीन दिनों में हमने हिसार में देखा इस पर विडंम्बना यह कि जो कुछ अच्छा हुआ या बुरा वह पंथियों को अच्छा ही लगता है ।
क्या हो गया है लोगों को ? 21वी सदी के वर्तमान में 18वी सदी का अंधानुकरण, अब हम प्रशासन को दोष दे या सरकार को, हल तो जनता से ही निकलना है जंहा प्रशासन और सरकार को इन पंथों पर नजर रखनी चाहिये वहीं लोगों को भी आंख मूंदकर इन पंथ प्रधानों की अंधभक्ति से बचना चाहिये अन्यथा न तो ये पहला प्रकरण है और न ही यह अंतिम होगा । लोग समझें की मन की शांति के लिये तलाशी जा रही ईश्वरी शरण और मानवनिहित आचरण भक्ति में क्या अंतर है अन्यथा यह चक्र हमेशा यो ही पुनरावृत होता रहेगा ।

मंहगाई पर नियंत्रण: थोड़ा हटकर सोचें ..


        दरअसल मंहगाई पर जब भी बात होती है तो हम सरकार से मंहगाई खत्म करने पर नहीं उसके नियंत्रण की बात कर रहे होते हैं । चूंकि मंहगाई खत्म करना किसी भी सरकार के बस सेे बाहर की बात है, पर बात आगे बढ़ते बढ़ते हमारी आपेक्षा जरूर बदल जाती है । अंत मे मंहगाई मुद्दे पर हमें भड़ासने के लिये सरकारी देह एक मारीच के रूप में जरूर मिल जाती है ! पर यह पूरी वास्तविकता नहीं है ?
       पूरी वस्तुओं पर मूल्य नियंत्रण सरकार के हांथों में कभी नही रहा ही नही। गिनी चुनी चीजों को छोड़कर बांकी संभी वस्तुओं सरकारी मूल्य नियंत्रण से परे हैं । जब भी मंहगाई की बात शुरू होती है हमारे जेहन में टैक्स जैसा शब्द सबसे पहले उभर कर आता है और यही अटक कर हम मान बैठते है कि यही वो कारण जो मंहगाई के लिये वास्तविक जिम्मेदार ? गौर करेे हमारे धर परिवार चलाने के जो आर्थिक आधार हम निर्धारित करते है और जिनका अनुसरण कर हम धर परिवार चला पाने लायक हो पातेे हैं वो ही आर्थिक आधार देश को भी चलाते है । उनका अनुसरण करना सरकार की अनिवार्यता है । इसको साधारण शब्दों में यो समझा जा सकता है: जैसे काल परिस्थती के अनुसार हम किराये पर दिये अपने किसी माकान का किराया सतत् बढ़ाते रहने की प्रवृति रखते हैं क्योंकि यह हमारी जरूरत है वैसे ही सरकार देश की जरूरत के मुताविक टैक्सों पर बड़ते क्रम में बदलाव लाती रहती है याने टैक्स का लगना और बढ़ना एक सतत और आर्थिक सुधार की स्वाभाविक प्रक्रिया है । इस स्वाभाविक अर्थनीति को हम मंहगाई से जोड़ अल्पज्ञान के आधार पर इसे ही महगाई का वास्तविक कारण मान लेते है ।
      अपने दिमांग पर यदि हम जरा सा भी जोर डालकर सोचे तो मंहगाई पर टैक्स की दखलनदाजी को आसानी से समझा जा सकता है । आपने कभी सोचा है कि जिस अनुपात में टैक्स बढ़ता है तो उसकी प्रतिक्र्रिया में आवश्यक वस्तुओ पर जो मूल्यवृद्धि होती है क्या उसका अनुपात उस वृद्धि को उचित ठहराता है ? कदापि नहीं, किसी वस्तु पर 1 रूपय टैक्स वृद्धि होने पर मूल्य 5 रूपये तक बढ़ते है, हां यही सच है और यह सारा प्रपंच टैक्स वृद्धि की आड़ में पूरी कारपोरेट लावी द्वारा रचा जाता है । यही वो लोग, वो असली वजह है जो जनसाधारण की हैसियत देखकर नही बल्कि अपने फायदे को देखकर मूल्य उछालते है ! तो क्या इस पर ढीकरा फोड़ने सिर्फ सरकार का ही सिर दिखाई देना चाहये ? हमारे समाज में ही बसते उन गुनहगार सिरों की अनदेखी करनी चाहिये ? ये कुछ विचारने लायक प्रश्न हैं ।
       सामाजिक विसमताओं की बात करें तो भारत में एक ही समय में एक साथ बहुत से समाज बसते हैं । कुछ तो ऐसे है जिनके लिये मंहगाई ज्यादा कुछ नहीं एक स्टेट्स सिंबल है पर बहुत ज्यादा ऐसे जिनके लिये मंहगाई मायने रखती है, पर एक सच्चाई यह भी है कि तथाकथित यह दूसरा मध्यम वर्ग भी समाज मे प्रतिष्ठा पर्याय बन चुके इन सामानों से अछूता नहीं रहना चाहता जो अब समाजिक प्रतिष्ठा की मजबूरी बन चुके है । पर इन विलासिता सामग्री की मूल्य वृद्धि पर तो सरकार का कोई हस्तक्षेप ही नहीं है तब फिर क्यो हम उसे मंहगाई से जोड़ हमेशा सरकारी सिर पर ही मढ़ते रहें ।
         सच पूछा जाये तो ये सरकार की नही लोगों की ही गलती है, अपने ना ढो सकने वाले शौकों को मंहगाई   का नाम देते उन्हें जरा भी संकोच नही होता हैं । मंहगाई पर जिस दिशा में मुंह कर हम चिल्ला रहे है वहां से तो सिर्फ हमारी गूंज ही वापिस आ सकती है.. यह समस्या का उत्तर तो कदापि नहीं, पर हां यह बात जरूर सच है कि गूंज सुनने में लोगों को मजा बहुत आता है । शायद मेरी कही ये बातें बहुतों को बुरी लगें पर यदि गंभीरता की बात करें तो मंहगाई के इस नासूर को दबाकर मवाद निकालने की कोशिश में मवाद तो निकलने से रहा,हा आह जरूर सुनाई देगी लोगों की।

संस्कृत बनाम जर्मनी


     एक नया विवाद उठ खड़ा  हुआ है कैन्द्रीय शिक्षा  पाठ्यकृम मे ! जर्मनी भाषा को निकाल  संस्कृत  को  रोपने   का । एक  तीर आकर  लगा अचानक केवीएस में अध्ययन करते  छात्रों पर मानव संसाधन मत्रालय के लिये इस निर्णय का कि अब केवीइस के 1100 में से 500 स्कूलों में वैकल्पिक पाठ्यक्रम के रूप में ली गई जर्मन भाषा के 70000 छात्रों को  भाषा की जगह संस्कृत भाषा पढ़नी होगी ।

           पिछले 15 सालों के इतिहास में देखे तो सबसे ज्यादा विदेश यात्रा करने वाले प्रधान मंत्री मोदी जी  ही है वर्तमान में विदेश नीति की जो छबि उन्होने देश  वासियों को दिखाई इसे अब देश में नजीर की तरह पेश भी किया जाने लगा है । वैश्वीकृत होती इस दुनियां में धुरी बनने का प्रयास करते  मोदी जी विज्ञान  और  विकास कोअपने दोनों चौड़े कंधों पर शोभित कर  विश्व परिक्रमां  में लगे हुये हैं पर  संध की सोच उत्तरभारत तक ही अटकी नजर आती है । इस संस्कृत बनाम जर्मन भाषा पर उठे विवाद पर मोदी जी ने आपत्ति तो क्या हल्का सा विरोध भी नहीं  जताया ।  आश्चर्य है  दुनियां के सामने  वैश्वीकृत छवि धारण करने वाला यह चरित्र अपने घर के अंदर  रूढ़िवादी है । सो मानव संसाधन  विभाग  से ये फरमान जारी  करने में ज्यादा कुछ दिक्कते नही आई की भविष्य में केन्द्रीय  विघायालयों में  अतिरिक्त  विषय के रूप में  जर्मनी  नही अब संस्कृत का  पठन  होगा ।
          अच्छा है संस्कृत भाषा हमारी विरासत है यह हमारे लिये तो मान सम्मान का विषय हो सकता है पर सोचना यह है कि आज के समय इसकी प्रायोगिकता कितनी है ? न तो इसे विज्ञान से जोड़ा जा सकता और न ही इस दौर के व्यापारीकरण से । भारत को छोड़ दुनियां के कितने देश या कितने लोग इस भाषा का प्रयोग करते है या यो कहे इस भाषा के बारे में जानते भी हैं ? शादी ब्हाय, पूजा पाठ और धर्मध्यान से आगे तो इस भाषा की बढ़त हमारे खुद के देश में भी नही है ।
           इस फैसले पर यदि सिर्फ जर्मनी नजर तिरछी करता तो उसे सहा भी जा सकता था पर वो हजारों-हजार जर्मन भाषा की शिक्षा लेते विद्यार्थी जो पीछे इसमें दाखिला ले चुके हैं उनके भविष्य का क्या ? संध यदि संस्कृत लाना ही चाह रहा था तो लाता पर जर्मनी भाषा को हटाकर ही क्यों ? होना तो यह चाहिये था कि वैश्वीकृत होती इस दुनियां में संस्कृत तो क्या फ्रेन्च, लेटिन रशियन या दुनियां की भिन्न भाषाओं के पठन पाठन का विकल्प बच्चों को दिया जाना चाहिये था हां उसमे यदि संस्कृत वैकल्पिक विषय के रूप में प्रस्तुत की जाती तो इससे उसका मान सम्मान कही से भी कम नही होने वाला था, और यह पहल मोदी जी करते तब ही उन्हें विश्वदृष्टा कहा जा सकता था ।
             विश्वबंधुता की बात करें तो उनकी अपनी भाषा में उनसे किया गया संवाद अंदर तक पहुच उनके बीच हमारे आने जाने का रास्ता बनाता है और यही वाणिज्यिक क्षमता हमारे देश को, देश के लोगों को उनके बीच स्थापित कर भीतर तक पहुच बना सकती है । महज संध प्रवर्तन को दर्शाने इस अदूरदर्शी आदेश को देश पर मढ़ देना उचित नही है । कोई भी खतरनाक खेल जाली के भीतर खेला जाता है शूटिंग रेंज जनविहीन स्थान पर बनई जाती है इसके पीछे उद्धेश्य यह होता है कि लोगे को इससे नुकसान न हो पर संध विचारधारा को प्रतिष्ठित एवं प्रमाणित करने के लिये शिक्षा और इससे जुड़े हजारों बच्चों को वालंटियर जैसा उपयोग कर क्यों उनका भविष्य दाव पर लगाया जा रहा है यह चिंता का विषय है । सबसे ज्यादा दुख तो यह है कि संध विचारधारा का प्रवर्तन कर रहे बुद्धिजीवी कहलाने वाले अध्यापकों द्वारा संस्कृत स्थापन का यह विषय उठाया गया ।