दरअसल मंहगाई पर जब भी बात होती है तो हम सरकार से मंहगाई खत्म करने पर नहीं उसके नियंत्रण की बात कर रहे होते हैं । चूंकि मंहगाई खत्म करना किसी भी सरकार के बस सेे बाहर की बात है, पर बात आगे बढ़ते बढ़ते हमारी आपेक्षा जरूर बदल जाती है । अंत मे मंहगाई मुद्दे पर हमें भड़ासने के लिये सरकारी देह एक मारीच के रूप में जरूर मिल जाती है ! पर यह पूरी वास्तविकता नहीं है ?
पूरी वस्तुओं पर मूल्य नियंत्रण सरकार के हांथों में कभी नही रहा ही नही। गिनी चुनी चीजों को छोड़कर बांकी संभी वस्तुओं सरकारी मूल्य नियंत्रण से परे हैं । जब भी मंहगाई की बात शुरू होती है हमारे जेहन में टैक्स जैसा शब्द सबसे पहले उभर कर आता है और यही अटक कर हम मान बैठते है कि यही वो कारण जो मंहगाई के लिये वास्तविक जिम्मेदार ? गौर करेे हमारे धर परिवार चलाने के जो आर्थिक आधार हम निर्धारित करते है और जिनका अनुसरण कर हम धर परिवार चला पाने लायक हो पातेे हैं वो ही आर्थिक आधार देश को भी चलाते है । उनका अनुसरण करना सरकार की अनिवार्यता है । इसको साधारण शब्दों में यो समझा जा सकता है: जैसे काल परिस्थती के अनुसार हम किराये पर दिये अपने किसी माकान का किराया सतत् बढ़ाते रहने की प्रवृति रखते हैं क्योंकि यह हमारी जरूरत है वैसे ही सरकार देश की जरूरत के मुताविक टैक्सों पर बड़ते क्रम में बदलाव लाती रहती है याने टैक्स का लगना और बढ़ना एक सतत और आर्थिक सुधार की स्वाभाविक प्रक्रिया है । इस स्वाभाविक अर्थनीति को हम मंहगाई से जोड़ अल्पज्ञान के आधार पर इसे ही महगाई का वास्तविक कारण मान लेते है ।
अपने दिमांग पर यदि हम जरा सा भी जोर डालकर सोचे तो मंहगाई पर टैक्स की दखलनदाजी को आसानी से समझा जा सकता है । आपने कभी सोचा है कि जिस अनुपात में टैक्स बढ़ता है तो उसकी प्रतिक्र्रिया में आवश्यक वस्तुओ पर जो मूल्यवृद्धि होती है क्या उसका अनुपात उस वृद्धि को उचित ठहराता है ? कदापि नहीं, किसी वस्तु पर 1 रूपय टैक्स वृद्धि होने पर मूल्य 5 रूपये तक बढ़ते है, हां यही सच है और यह सारा प्रपंच टैक्स वृद्धि की आड़ में पूरी कारपोरेट लावी द्वारा रचा जाता है । यही वो लोग, वो असली वजह है जो जनसाधारण की हैसियत देखकर नही बल्कि अपने फायदे को देखकर मूल्य उछालते है ! तो क्या इस पर ढीकरा फोड़ने सिर्फ सरकार का ही सिर दिखाई देना चाहये ? हमारे समाज में ही बसते उन गुनहगार सिरों की अनदेखी करनी चाहिये ? ये कुछ विचारने लायक प्रश्न हैं ।
सामाजिक विसमताओं की बात करें तो भारत में एक ही समय में एक साथ बहुत से समाज बसते हैं । कुछ तो ऐसे है जिनके लिये मंहगाई ज्यादा कुछ नहीं एक स्टेट्स सिंबल है पर बहुत ज्यादा ऐसे जिनके लिये मंहगाई मायने रखती है, पर एक सच्चाई यह भी है कि तथाकथित यह दूसरा मध्यम वर्ग भी समाज मे प्रतिष्ठा पर्याय बन चुके इन सामानों से अछूता नहीं रहना चाहता जो अब समाजिक प्रतिष्ठा की मजबूरी बन चुके है । पर इन विलासिता सामग्री की मूल्य वृद्धि पर तो सरकार का कोई हस्तक्षेप ही नहीं है तब फिर क्यो हम उसे मंहगाई से जोड़ हमेशा सरकारी सिर पर ही मढ़ते रहें ।
सच पूछा जाये तो ये सरकार की नही लोगों की ही गलती है, अपने ना ढो सकने वाले शौकों को मंहगाई का नाम देते उन्हें जरा भी संकोच नही होता हैं । मंहगाई पर जिस दिशा में मुंह कर हम चिल्ला रहे है वहां से तो सिर्फ हमारी गूंज ही वापिस आ सकती है.. यह समस्या का उत्तर तो कदापि नहीं, पर हां यह बात जरूर सच है कि गूंज सुनने में लोगों को मजा बहुत आता है । शायद मेरी कही ये बातें बहुतों को बुरी लगें पर यदि गंभीरता की बात करें तो मंहगाई के इस नासूर को दबाकर मवाद निकालने की कोशिश में मवाद तो निकलने से रहा,हा आह जरूर सुनाई देगी लोगों की।