Wednesday 24 February 2016

अभी भी वख्त है .

मैने बौद्धिकता को अक्सर गाली खाते देखा है ! बीच बीच में समझाने की कोशिशें भी होती हैं पर किसे ...  मेरे जितने भी समकालीन होंगे, हमें तो पीछे के लोगों ने यही समझाया था की काने को कभी काना नहीं बोला जाता पर लोग अक्सर ये बात भूल ही जाते है, हां शायद उनकी बढ़ती उम्र का बड़ापन उन्हें ऐसा कहने को मजबूर करता हो .. शुरू कहां से क.......रू, हां मृग मारिचिका .. सुना तो सबने होगा इस बारे में पर जो मरूस्थल में विहार करते है वो ही इसकी वास्तविकता वास्तव में जानते भी है और भोगते भी है । भौतिक ताप जब चरम पर होता है तो शरीर के ताप को बढ़ा ही देता है उस समय मस्तिष्क, ताप के सामन्जस्य हेतु पानी ढूंढता है इस दौरान पानी की कमी मस्तिष्क में भ्रम पैदा करती है और रेत की संतृप्त उष्मा वातावरण की हल्की सी नमी से संयुग्म हो धरापटल पर पानी का छद्म आभास देती है। मृग का भ्रमित मस्तिष्क उसे जलाजल समझ उसके पीछे भागता है दौड़ता है वहां पहुंचता है पानी में मुंह मारता है पर रेत ही मुंह में आती है, पानी फिर उतना ही दूर पहुच जाता है और यह क्रम बदहवासी तक जारी रह अंत में उसके प्राण हर लेता है । इस अवस्था को मृगतृष्णा और कुदरत की इस व्यवस्था को मृगमारिचिका कहा गया है ।
वर्तमान भारत में हिंदुत्व और हिन्दु राष्ट्र की लोकलालसा एक मृगतृष्णा की भांति ही तो है जो पूरे भारत में व्यप्त दिखाई दे रही है और इस मारिचिका की जनक है नई सरकार और इनको संचालित करने वाला संध , अब जो भी सरकारी संध मिशनरी से सीधे टकरायेंगे तो उन्हें गाली तो खानी ही पडे़गी। लोग  दरअसल भूल से चुके हैँ की हम अनादी काल से सनातनी हैं और हां हमारे अपने ग्रंथ हैं रीति रिवाज हैं और सबसे महत्वपूर्ण हमारे सनातनी आदर्श है । मैं उतना जादा ज्ञानी तो हूं नही सो ठीक से मुझे पता नहीं की ये हिन्दु शब्द किसने और क्यों सनातन पर चस्पा कर दिया, शायद संध ने 1900 के बाद शुरूआती दौर में इसका इस्तेमाल बहुतायत से किया । चूकि इसकी इन्हें जरुरत थी और शायद इन्होने ही इसका सृजन किया तो जाहिर है कि इसकी नियमावलि भी इनकी अपनी बनाई होगी, हां गड़बड़ उसके आगे आने वाले कई सालों में हुई । लोग सनातनी नियम धर्म और हिन्दु नियमावलि को मिलाजुला कर अपने लोकव्यवहार में लाने लगे और फिर इसके फ्यूज़न को ऐसा मोड़ दिया गया कि हिन्दुत्व व्यवस्था सनातनी व्यवस्था को सुपरसीट कर अपनी नियमावली के साथ इस देश पर हावी होती चली गई ।
आजादी के बाद जब प्रजातंत्र की स्थापना हुई तब तक दुनियां में लोकदस्तूर का नारा बुलंद होने से सेक्युलरिज्म का बोलबाला हुआ और भारत में भी एक लंबे समय तक यह प्रभावी बना रहा । लंबे समय तक सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा फिर अचानक हिन्दु सकते में आ गये कि हिन्दुत्व खतरे में है ! बुद्धिजीवी आज तक ये समझ नहीं पाये कि आखिर वो खतरा क्या था और किससे था पर आम हिन्दु संप्रदाय ये तुरंत समझ गया या यो कहें कि उन्हें समझा दिया गया कि वो खतरा क्या और किससे है ! और ये सब आसानी से इसलिये हुआ क्योंकि वे अब सनातनी नही हिन्दु थे ! रह रह कर एक प्रश्न सामने आता है कि आखिर उन्हें हिन्दु बनाया किसने, पर सभी इसका उत्तर जानते हुये भी इस प्रश्न को टाल जाते हैं क्योकि हिन्दुत्व में सनातन से जादा कड़ापन अड़ापन और बड़ापन जैसी मिथ्या धारणाओं को आत्मगौरव की तरह अलंकृत जो दिखाया जा रहा है ।
एक लंबे समय के पश्चात् भारत की राजनीति में परिवर्तन तो आया पर गया वो फ्यूजनाइड हिन्दुत्व के हाथ में । सो वर्तमान में जो प्रयास है वो देश की पूरी जनता पर हिन्दु लोगो (जनता नहीं) और हिन्दु प्रोटोकाल की मनवाही पर आकर टिके हुये हैं । हिन्दुत्व एक विचारधारा है धर्म नही, तब निश्चित ही इसकी एक लंबीचौड़ी लाविंग भी होगी, सो चाहे न चाहे सनातनियों पर हिन्दुत्व थोपा ही जा रहा होगा । हां इससे हर सनातनी खुश हो ऐसा भी जरूरी नहीं, सनातन की पहली पंक्ति ही सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय से प्रारंभ होती है तब तो जो सनातन के आदर्शो के मरमग्य है वह इन थोथे हिन्दुत्व के असंतुलित अवसरवादी प्रोटोकाल को अपनी अर्न्तआत्मा से स्वीकार कर पायें ऐसा होना नामुमकिन था। सनातन के हिन्दुदर्शन और संधरचित हिन्दुवाद तक की यात्रा के अंतर को बुद्धिजीवी तो अच्छे से जानते थे पर दुखद ये हुआ कि आज के युवा इसे न समझ पाये, शायद ही वे ये जानते हो कि वे हिन्दु नही सनातनी है, हिन्दुत्व पर ही थम चुकी युवा मानसिकता का सनातनी अध्यात्म की उत्कृष्टता उदारता और उसकी गहराई तक पहुंच पाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । उन पर तो ये हिन्दुवाद एक धर्म के रूप में चिपका ही दिया गया, और इतना तो संध ने मुमकिन कर ही दिखाया ।
वर्तमान में चल रही बौद्धिक गंभीरता v/s युवा भिड़ंत पर एक कहानी याद आई एक गांव में एक धूर्त हुआ करता था, दवदवा उसका इतना था कि गांव में आने वाले हर पंडित को वह अपनी शर्तो पर शास्त्रार्थ के लिये मजबूर कर देता था और शर्त यही होती थी की हारने वाला अपनी लोटा लंगोटी सभी कुछ हार बैठता था । कई पंड़ित आये और उससे हारकर अपना सब कुछ कर लुटा चले गये । स्थिती ये हो गई तो कोई भी पंड़ित उस गांव में जाने से डरने लगा । तब एक दिन एक आम ग्रामीण भटकता वहां पहुंच गया पंड़ित तो नहीं था पर था बहुत विद्धान, वहां गांव के हालात पर ग्रामीणों से उसकी चर्चा हुई तो सभी ने उसे वापिस जाने की सलाह दी और उस धूर्त की करनी का बखान किया । उसने उन गांव वालों से पूछा कि आखिर क्या कारण है कि सभी पंड़ित उससे शास्त्रार्थ में हार जाते हैं खुलासा ये हुआ कि वो प्रश्न ही ऐसा करता है कि जिसके उत्तर का अंत नहीं, वो प्रश्न यह कि रामचंद्र जी के पिता का क्या नाम, उत्तर मिलने पर मिले उत्तर के पिता का नाम और पित्र नाम का यह सिलसिला एक ही लय पर चलते चला जाता है उस अंत तक जहां शास्त्रार्थी की स्मृत वंशावलि समाप्त हो जाती थी और उसे हार स्वीकार करनी पड़ती थी । तो यह थी उस धूर्त की धूर्तता, पर था तो शास्त्रार्थ का विषय । उस विद्धान ने गांव वालों से पूरी बात सुनी और बोला की उस धूर्त को दंड देने का समय आ चुका है सो तुम उसे मेरी तरफ से शास्त्रार्थ का न्योता दो ।
नियत दिन, समय धूर्त और विद्धान आमने सामने गांव की पंचायत में शास्त्रार्थ के लिये बैठै और शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ । धूर्त ने ही प्रश्न किया जैसा वो हमेशा करता चला आया था कि रामचंद्र जी के पिता का नाम क्या था विद्धान ने उत्तर दिया दशरथ तब फिर प्रश्न आया दशरथ के पिता का नाम क्या था विद्धान ने उत्तर दिया ग्यारारथ (शास्त्रार्थ का एक नियम है यदि कोई जबाव गलत होता है तो सामने वाले शास्त्री को प्रश्न अपने हाथ में रखने हेतु उसका सही जबाब देना पड़ता है) धूर्त न तो धर्म जानता था ना ही ज्ञानी था सो सही जबाव वह भी नहीं जानता था सो प्रश्न करता गया और ज्ञानी बारहरथ, तेरहरथ, चौदहरथ करते जबाव देता रहा । एक स्थिती के बाद धूर्त घबरा कर रूक गया तब उस बुद्धिमान ने कहा रूक क्यों गया अभी तो मेरे पास सौ है फिर हजार और दसहजार लाख और करोड़ शंख तक की गिनती बांकी है तूं प्रश्न कर में जबाव देते जाता हूं । पूरे गांव के सामने जहां उसकी धूर्तता की तूती बोलती थी धूर्त उस बुद्धिमान के पैरों में गिर पड़ा अपनी धूर्तता की माफी मांगी दोबारा ऐसी धूर्तता न करने की कसम खाई और धूर्तता से लूटे सारे सामान को यथोचितों को वापिस करवाया गया, गांव वाले जो अब तक उसकी धूर्तता का मजा ले अपना मनोरंजन किया करते थे, अपने किये पर शर्मिदा हुये और उस धूर्त को गांव से निकाल बाहर किया । तो यहाँ धूर्त शास्त्री हैं : संघ, सरकार , हारे पंडित हैँ : देश, जनता और तमाशबीन ग्रामीण हैँ आज का युवा संप्रदाय ।
धूर्त को तो धूर्तता ही सुधार सकती है, बुद्धि तो उसके सामने यो ही परास्त होती रहेगी । यहां कितना ही सिर मारो बुद्धि का कोई रोल नहीं । राजनैतिक धूर्तता के लिये तो धूर्त राजनैतिक ही लगते हैं, हैं भी हमारे देश में सैकड़ों की तादात में सो टकराने दो आपस में इन्हें, इस गंद का यही समाधान है । सोशल गट्स तक तो लोग बौद्धिक कलम वर्दास्त करते है रिलीजनल गट्स पर कलम उठी तो मुंह की खानी पड़ती है और मुंह पर भी खानी पड़ती है, और आजकल यही तो चल रहा है।

Monday 8 February 2016

प्रजातांत्रिक असंतुलन

Union Budget
2014-15
10th July, 2014
 गरीब होना और गरीब दिखाई देना दोनो स्थितियों में बड़ा अंतर है.. कैसे थोड़ा और स्पष्ट करता हूं हमारे यहां इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में एक चपरासी है शर्मा, मिथुन से इन्सपायर है तनखा करीब नौ हजार के आसपास होगी पर हमेशा झकाझक कपड़े पहनता है, शर्टिग करता है जूते हमेशा चमकते रहते है और विभाग में हर नये आने जाने वालों पर अपने आप को सबइंजीनियर के रूप में पेश करता है । यहीं पास के गांव में एक दूसरा परिचित है सरपंच मंहगू, साठ ऐकड़ जमीन है सफेद पीली सी घुटनों तक की धोती पहनता है और ऊपर एल जेब वाला सलूका, हमेशा वगैर चप्पल ही चलता है कोई नया आदमी देखे तो बस यही कहना रह जाता है कि भई आज वगैर कटोरे के ही निकल गये क्या । तो वो शर्मा का शौक है और ये मंहगू की आदत । किसानों को मैने कभी खुश होते नही देखा एक मकान गांव में लड़का शहर पढ़ने आया तो एक मकान यहां भी खरीद लिया घर में सब सुविधा सामान है, किसानी में सरकारी सरमाया है हर मोड़ में आर्थिक सब्सिड़ी है और विपदा में सरकारी छत्रछाया (मूल्य नियंत्रण,सरकारी खरीदी) प्राकृतिक आपदाओं पर सरकारी दत्तक पुत्र प्रवृति और ये सब यदि पाना हो तो सीधा सा तरीका है सरकारी कैमरे में बेचारे बने रहो, कभी खुश ही न दिखो।
सर्वे और प्रीपोल पर आजकल बड़ा भरोसा करते हैं लोग, वाणिज्य विषय में एक पैरा लिखा दिखाई पड़़ता है तात्कालिक स्थिति परिस्थिती पर जमीनों का मूल्यांकन ! हमारे यहां से पलायन करते मजदूरों से उन्ही के साथ यात्रा के दौरान मेरे पूछने पर पता चला कि मजदूरी कर रहे इन मजदूरों में से किसी के पास तीन किसी के पास पांच और किसी किसी के पास तो सात एकड़ तक जमीन है और सारी की सारी उपजाऊ, बिरले ही किसी ने कहा कि वह भूमिहीन है । जिज्ञासा बढ़ी सो उनकी कीमत पता करने की सोच बनी । हमारे यहां बहुत जादा प्रतिशत रिटर्न वाली जमीन नहीं हैं पर फिर भी जमीन तक एप्रोज के वर्गीकरण से बीस से पचास लाख रूपय तक का उपजाऊ जमीन का रेट चल रहा है याने उन किसानों के ऐसेट्स कम से कम से कम रेट पर भी कम से कम साठ और जादा से जादा एक करोड़ चालीस लाख रूपय निश्चित है (कही कही तो उर्बरता प्रतिशत पर जमीन की कीमत करोड़ रूपय से शुरू होती है) ।
अभी अभी मेरी पत्नी ने इलेक्ट्रिसिटी वोर्ड से वालिन्ट्री रिटायरमेंट लिया है अच्छी खासी हेंडसम सैलरी पर । तैतीस साल की नौकरी के बाद उसके फंड कैल्क्यूलेसन के दौरान मुझे ज्ञातव्य में आया था कि इन तैतीस साल की नौकरी में तनखा में उसने करीब उनन्चास लाख और बाद के क्लीयरेन्स में करीब उन्नीस लाख याने कुल मिलाकर पूरी जिंदगी में अड़सठ लाख रूपये कमाये (कर भुगतान नही घटाया गया), बाद के लगभग बीस साल वो टैक्सपेई रही । सरकारी आंकड़ों को तो आप हर दिन प्ले करते है कैसा लगा मेरा इस अपने सर्वे का निजी आंकड़ों वाला प्रेजेन्टेशन उस पछिये (घुटने तक धोती) वाले गरीब किसान की तुलना में। तो ये है हमारे भारत के उन सत्तर प्रतिशत गरीब किसानों की स्थिति की तुलना में उन बीस प्रतिशत नौकरी पेशा लोगों की आर्थिक स्थिति यदि बांकी बचे दस प्रतिशत को बहुत अमीर या बिल्कुल गरीब मान के छोड़ भी दिया जाय तो ?
एक प्रश्न बार बार मन में आता है कि यदि उन सत्तर प्रतिशत (तथा कथित गरीबों) को स्क्रीन आउट किया जाय तब इन तीस प्रतिशत (मध्यम वर्ग) को अपने जिंदगी के टास्क अपने बल बूते पर करने होते है याने अपने परिवार का पालन पोषण जिसमें बच्चों की छोटी से बड़ी पढ़ाई बिटियां की शादी अपने लिये घर और वर्तमान परिस्थितियों में अपने बच्चें की जिंदगी का सेटिलमेंट (नौकरी तो है नहीं तो अपनी गुंजाइस में लडके को छोटा या बड़ा बिजनिस प्लेटफार्म देना ) करना और फिर उसकी रोजमर्रा की दुनियावी जरूरतें।
हर बार आने वाला बजट लोगों में उत्सुक्ता लेकर आता है । उस बजट का अंशतः छोड़ दिया जाय तो लोगों में की भीड़ का यह उत्साह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना टाईप का ही है । रेल यात्रा साल में कितनी बार करते हो भाई कितनी बार हाइप्रोफाइल जिंदगी में कदम रखते हो या इस सरकारी बजट पर अपने घरेलू बजट को कितना ओव्हरलेप कर सकते हो ग्रेनरी तो कम होते कभी देखा नही जबसे होश संभाला तब से बढ़ते रेट पर ही ले रहे हो, किचिन नीड्स का आला हाथ की पहुंच से उपर जा रहा है ? घर की जिम्मेदारियों को एक अच्छे पति या पिता की हैसियत से निभाने के लिये मेरे वाले तबके को तो रोज जितनी खर्च करने की जरूरत है उतनी ही बचत की भी जरूरत है और वो भी अपनी दम पर, वो आये कहां से तब जब यहां उनकी पीठ पर हाथ रखने कोई राबिनहुड (सरकारी मदद) भी नही है । पर कुछ तो करना होगा सो हमारा यह वर्ग अपनी खुद की मदद के लिये एक अपने अलग ढंग के फ्यूजन राबिनहुड की रचना करता है ! भ्रष्टाचार की, मैं यहां बड़े स्तर के भ्रष्टाचार की बात नहीं कर रहा हूं ग्रीवान्स की बात कर रहा हूं जिसे हम व्यवहारिक भ्रष्टाचार के नाम से जानते है और जिसे हमारा समाज वर्तमान का सबसे बड़ा गुनहगार और नौकरीपेशा अपनी सबसे बड़ी जरूरत और जरूरत के आर्थक श्रोत के रूप में जानता है । जिस भ्रष्टाचार से देश परेशान है वह सिर्फ नौकरशाही से ही निकल कर आता है.. क्यों इसका खुलासा मैं उपर एक हद तक कर आया हूं।
गलत तो गलत है पर इसका क्यों यदि हम ढूंड पाते है तो उसे दूर करने का उपाय भी संभव किया जा सकता है । महगाई एक सतत वाणिज्यिक प्रतिक्रिया है सरकार कितने भी दावे करें इसे बढ़ने से रोका नही जा सकता क्योकि इसका अपना कोई स्वतंत्र रूप न होकर परिस्थितियां इसे बहुरूपिया बनाती हैं । इसे रोका तो नहीं जा सकता हां इसके साथ चलने की खुद में क्षमता बनानी होती है और इसकी बराबरी तो आपको सिक्कों के पहिये पर चलकर ही करनी होगी तो ये पहिये लायें कहा से और कैसे मंहगाई के बराबर चलने हेतु इनकी क्षमता बढ़ायें ? जिम्मेदारी निर्वहन, बचत पर निर्भर करती है और बचत खर्च के बाद शुरू होती है खर्च बजट पर निर्भर करता है और बजट हर बार हमारे वर्ग को निराश करता है तो अंत में भ्रष्टाचार ही हमारा अंतिम सहारा बनता है और यह चक्र यूं ही चलते रहता है.. तो कैसे रोकोगे इस भ्रष्टाचार को ?
बजट की अभिव्यक्ति यो की जा सकती है कि सरकार हमसे क्या ले रही है और उस ऐवज में हमें क्या दे रही है । चांणक्य बहुत ही प्रेक्टीकल अर्थशास्त्री कहे गये हैं अर्थशास्त्र में जो संभावनायें सफल हो सकती है उन्हें पहचानने हेतु उन्हें जाना जाता है उन्होने कर (टैक्स) पर एक सूत्र दिया हुआ है: अपनी कमाई का सोलहवे भाग तक व्यक्ति खुशी खुशी कर के रूप में प्रदान करता है इससे उपर यदि कर स्तर जाता है तो जनता की नियत कर चोरी पर अमादा हो जाती है । दूसरा: कर के एवज में दी गई सुविधाओं के बटवारे में यदि असंतुलन दिखने तक की स्थिती में पहुच जाता है तो जनता इसे नाइन्साफी के रूप में देख अपने अंदर बगावत को जन्म देने लगती है । अब इन सूत्रों से आप  गढ़ना कर सकते हैं कि साबुन से लेकर इन्कमटैक्स तक हम कितना टैक्स दे रहे हैं और इसके बदले में सरकार हमें कितनी सुविधायें लौटा रही है और दूसरी तरफ इनका गरीब किसान कितना कर दे और कितनी मदद ले रहा है ।
और अंत में विक्रम और वेताल अंदाज में प्रश्न उत्तर, तो राजन एक तरफ जहां मध्यम अपनी पुलिंदा जरूरतो को अपने बलवूते पर पूरा करने अपना घर जेवर या ऐसी ही अन्य चीजों को बेच कर्ज को करते चुकाते और फिर बार बार जिंदगी भर इसी क्रम को दोहराते हार न मान अपने पराक्रम से पूरा करने की शोर्यता दिखाने पूरी जिंदगी मजबूर हैं तो दूसरी तरफ इन लखपति, कारोड़पति गरीब किसानों का कर्ज न चुका सकने की स्थिती में अपने इन करोड़ों के ऐसेट्स (जमीन) के रहते खुद का दाहसंस्कार या ऐसे ही अन्य उपक्रम से अपना बेचारापन दिखा गरीबियत की मोहर चस्पाई और फिर वोट के चक्कर में इन गरीबों के पीछे भागती मनाती सरकार द्वारा बजट में उनके लिये मध्यम का हक छीनकर इनकी षठ् संस्कार अगुआई, कहो कि दोनो की स्थितियों में कौन सुख भोग रहा है और कौन दुख झेल रहा है ? और इनका जबाव राजन तुमने जानते हुये भी नही दिया तो तुम्हारा सर तो नहीं तुम्हारा सिंहासन टुकड़े टुकड़े हो जायेगा ।

Sunday 7 February 2016

सरकार के यक्ष व्यापार

अभी तक हम ग्रीवेन्स (सरकारियों का भ्रष्टाचार ) पर अटके हुये हैं पर अचानक व्यापारिक भ्रष्टाचार पर ध्यान गया । हुआ यो कि मैने अपने मोबाइल पर आईडिया 3 जी का 249 का नेट प्लान डाला, उसमें हर उपयोग के बाद कन्ज्यूम डाटा के मेसेज आ रहे थे । जिज्ञासा बढ़ी गूगल प्ले पर इसे क्रास चेक करने हेतु तलाशी ली तो एक यूटिलिटी नजर आई माई डेटा मैनेजर इसे इंस्टाल करने के बाद जांचा तो कंपनी काउन्टिग और इस यूटिलिटी की काउन्टिंग में 10 एमबी का अंतर एक ही दिन में नजर आया याने आईडिया काउन्टर यूटिलिटी के काउन्टर से 10 एमबी खपत जादा बता रहा था । कौन सही है कौन गलत है ये तो खैर सरकारी प्रश्न हो सकता है पर मुझे तो ये समझ आया कि यूटिलिटी इतनी बेवाकूफी से तो नही बनाई गई होगी कि एक दिन में 10 एमबी का अंतर बतायें तो बात कंपनी की नियत पर की जल्द से जल्द यूजर का डाटा खत्म हो जाये और उसके अंदर की चुल उतनी ही जल्दी इसे रीलोड करने पर मजबूर करे पर जाकर खत्म हो जाती है और इस तरह कंपनी डाटा पेक के कन्जम्सन पर हेराफेरी कर यूजर का पैसा दबा रही हैं । और किस तरह यूजर उनकी इस हेरा फेरी से कितने करोड़ो या अरबों का चूना अपनी जेबों पर हर साल लगवा रहे है। 

भ्रस्टाचार की जब भी बात होती है तो लोगों का ध्यान सिर्फ ब्यूरोक्रेटिक ग्रीवेन्स पर जाकर केंद्रित हो जाता है पर मर्चेन्टाइल ग्रीवेन्स.. वो कहावत है न की कथड़ी ओढ़ कर अंदर ही अंदर घी खा रहा है । अब जब बात भ्रष्टाचार नियंत्रण की हो तो आंखे फिर सरकार की नियत पर जाकर ठहर जाती है । आजादी के बाद का वो समय याद आता है, लोग बहुत गरीब थे सरकार भी गरीबो के लिये वास्तव में चिंतित थी । उस समय की राजनैतिक सोच यही बनती थी कि मुश्किल से कमाये गये इन गरीबी के पैसे को कोई यू आसानी से लूट न पाये । भौतिक जरूरतें तो जादा कुछ थी नही बस लोगों का व्यय आवस्यकताओं तक सीमित था सो सरकार ने एक विभाग अलग से बनाया नाप तौल विभाग वो इसलिये कि व्यापारी इस आवस्यकताओं के क्रय विक्रय में इन गरीबों को लूट न पाय, क्रय विक्रय के एक मात्र माध्यम तराजू और वांट की विधिवत जांच होती थी विभाग इस पर शिकायते सुनता था और दंडविधान से इसका निवारण भी करता था । 

ये तो थी सरकारी नियत अब व्यापारियों की बात करें तो इतिहास गवाह है इन्होने युद्ध, आकाल, महामारी जैसी विभीषिकाओं के समय में भी न सिर्फ गरीबों को लूटा है बल्कि इन अमानवीय त्रासदियों की अगवानी का स्वागत कर इन र्दुदिनों से बनी ईटों से अपनी कुबेरी बुनियादों को बनाया भी है । ऊपर जिस सरकारी नियत की अभी तक बात हुई ये उस समय तक सीमित थी जब तक राजनीति पैसो की मोेहताज नही थी। पुरानी सरकारें इस पर इतनी तो चिंतित थी की नाप तौल विभाग का इन्सपेक्टर घूम घूम कर इस पर नजर रखता कि जनता ठगी न जा सके । समय बदला नियत बदली और अब टीबी पर ऐड.. जागो उपभोक्ता जागो अपना नफा नुक्सान खुद पहचाने जो भी करना है तुम्हें ही करना हम से कुछ उम्मीद न रखना । आज की राजनैतिक विडम्बना ये है कि नेता अपनी शर्ट के अपर पैकेट में तो व्यापारियों को रखते है और पेंट के बैक पैकेट में जनता को । व्यापारियों को तो ये उपर वाला पैकेट नेताओं के दिल तक पहुंचा देता है पर जनता.. उनके बैक पैकेट से कहां पहुंच सकती है इसका जबाव आप खुद ही तलाश लें तो बेहतर है । 

ये सब में इसलिये कह रहा हूं कि इस गर्वन्मेंट मर्चेन्ट फ्रेन्चायसी का आभास कहीं तो सभी को है । मुझे आज तक ये समझ नहीं आया 15 वाट का चाईनीज एलईडी वल्व 70 से 100 रूपये में बिक रहा है पर भारतीय 8 वाट का एलईडी वल्व 600 रू. में जबकि उपयोग हो रहा मटेरियल चाईना से ही आ रहा है, ऐसा क्या लगा दिया भारत आते आते । एक तरफ तो सरकार ऐनर्जी सेविग की बात करती है और वास्तव में सेविग होती भी है एलईडी वल्व से, होना तो ये चाहिये था ये वल्व कम से कम मूल्य पर बिक रहे होते शहर की सड़कों पर...पर नहीं क्यों ? रेड्डी ने जब ओमीप्रोजाल (ऐन्टासिड़ दवाई) निकाला तो शुरू के दो साल तक 8.50 (एक गोली) रू. में बेचता रहा जब दूसरी कंपनी के लांच हुये तो वो 3.90 रू. में मिलने लगे और जेनरिक तो 1.20 रु. में । झंडू बाम की शीशी.. कभी पलट कर देखिये सरकारी व्यापारिक नीतियों का कितना बड़ा खोकलापन नजर आता है ! ये सभी वो वस्तुयें हैं जिसे मजदूर से लेकर अमीर तक प्रयोग में लाता है और यही सब हो रहा है सरकार की नाक के नीचे ! अब इसे सरकार की नियत समझा जाये या प्रजा की नियती ? 

और भी बहुत कुछ है, इनमें कितनी सच्चाई है यह तो पता नही पर समाज में फ्लोट हो रही इन बातों का जिक्र यहा संदर्भित लगता है शायद ब्लाग में इन्हें कोट करने से इन्हें सतह मिल सके । ये कहा जाता है कि मंहगे होते क्रम से ब्रांन्डेड खाद्य तेलों में 25 प्रतिशत तक सोया या पाम आईल मिलाने की या पेट्रोल में 10 प्रतिशत तक ऐथेनाल मिलाने की सरकारी यक्ष मंजूरी है । यहां माजरा ये है कि दोनो ही मिलावटों की साधारण परीक्षण से जांच नहीं की जा सकती । ये दोनो वो उपभोगित वस्तुये हैं जिनकी खपत का सही सही कागज पर अंदाज लगाना भी मुश्किल है। इस पर सरकारी मन्सा यह बतायी जाती है कि मांग और आपूर्ति के मद्धेनजर इन्हें काम्प्रोमाइज किया गया है । अब ये मिथ है सत्य या असत्य यह तो अन्बेषण का विषय है, एक ऐसा अन्बेषण जिसका सत्य शायद ही कभी सामने आ पाये पर यदि यह सत्य है तो किसकी और कितनी धनहानी हो रही है इसके आंकड़े शायद आंख फैलाने तक सीमित न रहें । 

व्यापार से जुड़े ये तो वो एक दो तीन तथ्य है जिनमें से कुछ के प्रमाण है कुछ हवा में पर वो सैकड़ों जिनकी अब तक चर्चा ही नहीं उनका क्या.. सबा अरब जनसंख्या के देश और इनकी प्रतिव्यक्ति उपयोगिता के अनुपात में इन मिलीसेप्ड मर्चेन्टाइल घोटालो को यदि एक्सप्लोर कर उनका हिसाब लगाया जाय तो काले धन का वो 15 लाख वाला आंकड़ा शायद बहुत पीछे छूट जाये । व्यापार में नैतिकता की तो खैर उम्मीद ही नहीं की जा सकती, यदि इसे छोड़ भी दे तो पहली नजर के इन हार्मलेस और हिड़न भ्रष्टाचारों से जनता की जेब का तो नुकसान हो ही रहा है, जनता इन नामालूम पाकेटमारी की शिकायत करे भी तो किससे ? 

सरकार को यदि मांग आपूर्ति नियंत्रण में रखना भी है तो जनता को भी तो यह बताया जा सकता है कि इतने प्रतिशत तक की मिलावट नुकसान दायक नहीं है, जनता अपने संज्ञान पर खुद ही कम से कम 100 की जगह में 60 (सोया,पाम आईल) के और 80 की जगह 30 (ऐथेनाल) रू. के रेट पर मांग आपूति को संयत कर प्रतिलीटर उतना पैसा अपने परिवार के लिये तो बचा सकती । कहने को तो उपभोक्ता फोरम भी है पर उसमें जो लड़ गया सो पा गया पर बांकी बचे उन इनोसेन्ट 99 का क्या जो न तो इस ठगी को समझ पाये और न लड़ पाये ? अंत में यही कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार सिर्फ नौकरशाही में ही नही है, सिर्फ कह भर देने तक सीमित राजनेताओं की उंगली कब इस व्यापारिक भ्रष्टाचार की और उठेगी और उठने के बाद क्या कभी टेड़ी भी होगी ?

Thursday 4 February 2016

मध्यमवर्ग में सुगबुगााहट :

सामाजिक मानसिकताओं पर मेरा चिंतन जादा होता है, गतिशील राजनीति पर लिखने से मै हमेशा कतराता हूं कारण सिर्फ इतना की कहना सुनना वहाँ अच्छा लगता है जहां कुछ मिलने की उम्मीद हो पर मैने राजनेताओं को हमेशा हमसे लेते हुये ही देखा कभी वोट, हर पल टेक्स, कभी समर्थन और बदले में हमेशा हमने उम्मीद, झांसा और इन्तजार ही पाया है.. कैसे एक सरकारी अस्पताल पर सौ, सवासौ प्रायवेट अस्पताल, दो चार निम्न/उच्चतर शिक्षा संस्थानों पर हजार दो हजार प्रायवेट शिक्षण संस्था, एकाध परिवहन व्यवस्था पर हजारों प्रायवेट परिवहन व्यवस्था, एक सरकारी एयर लाईन पर दसेक प्रायवेट एयर लाईन, पुछकटी वाटर सप्लाई पर हजारों प्रायवेट वाटर पैकेजिंग व्यवस्था हां सिर्फ एक रेल यातायात ही ऐसा है जिसमें प्रायवेटाइजेशन नही है पर वहां ओपनिग के साथ ही अगले तीन महिने तक टिकिट चमत्कारी तरीके से नदारत और वो लोगों का न खत्म होने वाला इंतजार ! सरकारी रोजगार पिछले पच्चीस साल से गायब अब तक बैकलाग ही चल रहा है । हां हजारों प्रायवेट कंपनियां रोजगार जरूर दे रही है । चलिये इतना तो शुक्र है कि हमें हमारी जरूरते प्रायवेट प्लेटफार्म पर मिल तो रही है, पर कैसे ? घर परिवार के बहुत से आर्थिक समझौतों के बाद, अब प्रश्न ये उठता है कि इन प्रायवेट प्लेटफार्मो में ये वेलगाम आर्थिक उद्दंड़ता आखिर आई कहां से । तो धूमफिर कर ये दायरा प्रजातांत्रिक राजनेताओं की नियत पर जाकर खत्म हो जाता है ।
हमारे एक जिलाअध्यक्ष थे, उस समय उनसे मिलने का सौभाग्य यदा कदा मिलते रहता था बड़े सुलझे हुये व्यक्तित्व थे, एक बार के वार्तालाप में उन्होने कहा था ये नेता लोग सोचते है कि देश हम चला रहे है, गधे हैं सब के सब यदि देश को यू ही नेता विहीन भी छोड़ दिया जाय तब भी उन्नीस बीस के अंतर पर देश यो ही चलता रहेगा, भ्रस्टाचार तो इनके दादे भी नही रोक सकते ये हट जाये तो बल्कि सरकार चलाने का बहुत सा पैसा बच जायेगा हाई लेबिल का भ्रस्टाचार खत्म हो जायेगा क्योकि पार्टी फन्ड़िग खत्म हो जायेगी चुनाव का अपव्यय खत्म हो जायेगा और जनता झांसों से निकल वास्तविकता के धरातल पर आ जायेगी। 
सोचो तो उनकी सोच पुखता लगती है, ये नेता कहने को तो महाबली पर इतने बेचारे है कि जनता के विपरीत (सभी को पता है कि हमारी जनता का क्या मारल हैे) एक शब्द भी नही कह सकते काला, सफेद, पीला, हरा, नीला सब इनके लिये सही और यदि गलत कहना भी होता है तो ऐजेन्सियों से कहलवाते हैं। देश राजनीति से कभी नही चलता नेता संविधान संचालन की निगरानी जरूर करते हैं पर संविधान का पालन तो नौकरशाही के ही हिस्से में है और ये एक सेमीहिडन फेक्ट है । सभी कुछ कानून के दायरे में है जिसमें ये नेता भी आते है इससे हटकर तो कोई जा ही नही सकता, कानून को प्रजातंत्र में सर्वोच्च कहा भी गया है पर कानून को पालने वाले नेता कही से भी नही है, पूरे देश में नौकरशाही को ही कानून मनबाने का हक है । कानून बनाने का हक जनता प्रतिनिधि की हैसियत से इन नेताओं को जरूर है (उस समय विपक्ष जैसा कुछ नही था, यदि होता तो शायद कानून बनाते बनाते ही कानून की धज्जियां उड़ जाती) पर फालतू कानून, जरूरी कानून बनाने बदलने में तो इन अधिकृत नेताओं को भी ऐड़ी चोटी का जोर लगाने के पश्चात् भी कुछ भी हांसिल नही हो रहा है । 
हमसे कर संकलित करके आखिर ये नेता कर क्या रहे है सभी कुछ तो प्रायवेटाइजेसन से कराया जा रहा है ? यदि हम ऐसा सोचते हैं तो गलत है, बहुत कुछ हो रहा है अंदर ही अंदर प्रायवेटाइजेसन की इस फ्लड में रिस्तेदारो को अर्न दिया जा रहा वोट गेनिग के लिये निचले तबके की मजबूरी अहसानित की जा रही है और पार्टी को अजर अमर बनाने हेतु फंड पर फंड इकट्ठा कर पार्टी बाल्ट बनाया जा रहा है और इन इफरात चुनावी खर्चे का हमाली बैल हर संभावित रास्ते से इस जन के धन को बनाया जा रहा है । और हम है कि इनकी तरफ कुछ पाने की आश लगाये मुह वाये ताक रहे है । 
मिलता है पर सभी को नही, एक विरोधाभास बार बार टीसता है मेरे एक मित्र ने सीमित पूंजी मेें रेडीमेट कपड़े की दुकान डाली, दो साल में ही पूंजी की कमी के कारण इस प्रतिस्पर्धी व्यापार में वह व्यापार से बाहर हो गया, पूंजी भी गई व्यापार भी गया परिवार भी बिखर गया पर पीठ पर हाथ रखने वाला कोई नही । बड़ा त्रास आता है अपने पर और जलन भी होती है उन वोट बैंकों से जहां ओले पड़े, गेरूआ लगे, सूखा पड़े, बाढ़ आये, बरसात कम हो, बरसात जादा हो हर मुसीबत में पैसा लेकर सरकार उनके दरवाजे पर खड़ी रहती है और पैसा भी किसका ? हमारा जो हम विकास के नाम पर टेक्स के रूप में सरकार को देते है । ये सोच कर तो और भी मन भर आता है कि उन तथा कथित बेचारों का भारतीय आर्थिकी मे कर के रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कितना योगदान है क्योकि वो बेचारे तो न टेक्स भर सकते है न टेक्सेवल आधुनिक सुविधाओं का क्रय बिक्रय या उपयोग ही कर सकते है और भी बहुत सारी सुविधाओं की जरूरत है उन बेचारों के लिये ! बच्चों की पढ़ाई, बच्चों को साइकिल, उनके मां बाप की तीरथ यात्रा, उनकी बिटिया की शादी ! सबके लिये हम हैं न ! गरीब तो गरीब पटैल (रूरल इलाकों के सम्पन्न) तक मजा ले रहे है इस सरकारी छांव का, कारण झुंड़ जो है उनकी मुट्ठी में पर कस्बाई मध्यम वर्ग.. मोहल्ले पड़ोस की तो छोड़िये बीबी, बच्चे तक वोट न डाले घर प्रमुख के कहने पर, समझदार जो हैं.. तब यही लगता है ऐसी समझदारी से तो वो झुंड़ बाले बुद्धु ज्यादा मजे में है, पर हमे हमारे बच्चों को, हमारे मां बाप को बेचारा समझने की शायद हमारे ही नेता जरूरत नही समझते । 
दूसरा तर्क यदि इतनी गहराई तक मदद का जजबा है तो हम सलाम करते है आपके उस जजबे को पर यह सब सरकारी खर्च पर नही पार्टी फंड से होना चाहिये क्योकि जनता विकास के नाम पर टेक्स अदा करती है और पार्टियों के इस कदरदानी जजबे को विकास तो कहीं से नही माना जा सकता । सरकार की नजर हर समय फंड (कार्पोरेट) या फिर झुंड (गरीब/किसान) पर ही रहती है मध्यम की मानसिकता/जरूरते तो नेताओं को सिर्फ छाया के रूप में नजर आती है और छाया तो जरूरत विहीन (नीडलेस शेडो) ही होती है। 
यहां मेरा कहने का यह मतलब बिलकुल नही है कि गरीबी की मदद न की जाये, मदद करो पर जितनी यथोचित हो दूसरों के हिस्से में से दे दे कर उन्हें नकारा तो ना बनाओ । हर चीज उनके हाथ में थमाते गये तो सामाजिक संतुलन गड़बडा जायेगा मानसिकतायें तुलना करने लग जायेंगी और ऐसा होने भी लगा है । 
लोगों को ये लग सकता है कि यह सब स्थिर मस्तिष्क का चिंतन न हो, सब कुछ तो हो रहा है मिडिल ग्रुप में पर मेरा निवेदन है कि मेट्रो या उनके समकक्षों को छोड़ दिया जाय फिर लखनऊ, नागपुर, जबलपुर, हैदरावाद, चंड़ीगढ, जैसे सेंटरो को नाकते हुये इन बी क्लास सिटी के अतिरिक्त कस्बाई शहरों की हजारों में एक श्रृखला है जहां करोड़ों मध्यम वर्गीय अपनी थोड़ी बहुत अच्छी जिंदगी की चाह में इस असंगत प्रजातंत्र को जी रहे है। सही कहा है केजरीवाल ने कि प्लेन से उतरने के बाद हबाई अड्डे से लेकर जहां तक सड़क उन्हें ले जाती है वहां तो हर कहीं माडल सिटी ही है और ये सड़क वायपास होे जब उन दीन हीन गांवो तक पहुचाती है जिनकी चिंता हर राजनैतिक पार्टी के नेताओं को देवदूत सा बना देती है तब उसके बीच का वो घना शहर तो कही गुम होकर ही रह जाता है जो राह में कही पड़ा ही नही और उसके अंदर फिर और गहरे और फिर उससे और गहरे तो शायद अंधेरा गहराता ही जाता है ।