Wednesday 24 February 2016

अभी भी वख्त है .

मैने बौद्धिकता को अक्सर गाली खाते देखा है ! बीच बीच में समझाने की कोशिशें भी होती हैं पर किसे ...  मेरे जितने भी समकालीन होंगे, हमें तो पीछे के लोगों ने यही समझाया था की काने को कभी काना नहीं बोला जाता पर लोग अक्सर ये बात भूल ही जाते है, हां शायद उनकी बढ़ती उम्र का बड़ापन उन्हें ऐसा कहने को मजबूर करता हो .. शुरू कहां से क.......रू, हां मृग मारिचिका .. सुना तो सबने होगा इस बारे में पर जो मरूस्थल में विहार करते है वो ही इसकी वास्तविकता वास्तव में जानते भी है और भोगते भी है । भौतिक ताप जब चरम पर होता है तो शरीर के ताप को बढ़ा ही देता है उस समय मस्तिष्क, ताप के सामन्जस्य हेतु पानी ढूंढता है इस दौरान पानी की कमी मस्तिष्क में भ्रम पैदा करती है और रेत की संतृप्त उष्मा वातावरण की हल्की सी नमी से संयुग्म हो धरापटल पर पानी का छद्म आभास देती है। मृग का भ्रमित मस्तिष्क उसे जलाजल समझ उसके पीछे भागता है दौड़ता है वहां पहुंचता है पानी में मुंह मारता है पर रेत ही मुंह में आती है, पानी फिर उतना ही दूर पहुच जाता है और यह क्रम बदहवासी तक जारी रह अंत में उसके प्राण हर लेता है । इस अवस्था को मृगतृष्णा और कुदरत की इस व्यवस्था को मृगमारिचिका कहा गया है ।
वर्तमान भारत में हिंदुत्व और हिन्दु राष्ट्र की लोकलालसा एक मृगतृष्णा की भांति ही तो है जो पूरे भारत में व्यप्त दिखाई दे रही है और इस मारिचिका की जनक है नई सरकार और इनको संचालित करने वाला संध , अब जो भी सरकारी संध मिशनरी से सीधे टकरायेंगे तो उन्हें गाली तो खानी ही पडे़गी। लोग  दरअसल भूल से चुके हैँ की हम अनादी काल से सनातनी हैं और हां हमारे अपने ग्रंथ हैं रीति रिवाज हैं और सबसे महत्वपूर्ण हमारे सनातनी आदर्श है । मैं उतना जादा ज्ञानी तो हूं नही सो ठीक से मुझे पता नहीं की ये हिन्दु शब्द किसने और क्यों सनातन पर चस्पा कर दिया, शायद संध ने 1900 के बाद शुरूआती दौर में इसका इस्तेमाल बहुतायत से किया । चूकि इसकी इन्हें जरुरत थी और शायद इन्होने ही इसका सृजन किया तो जाहिर है कि इसकी नियमावलि भी इनकी अपनी बनाई होगी, हां गड़बड़ उसके आगे आने वाले कई सालों में हुई । लोग सनातनी नियम धर्म और हिन्दु नियमावलि को मिलाजुला कर अपने लोकव्यवहार में लाने लगे और फिर इसके फ्यूज़न को ऐसा मोड़ दिया गया कि हिन्दुत्व व्यवस्था सनातनी व्यवस्था को सुपरसीट कर अपनी नियमावली के साथ इस देश पर हावी होती चली गई ।
आजादी के बाद जब प्रजातंत्र की स्थापना हुई तब तक दुनियां में लोकदस्तूर का नारा बुलंद होने से सेक्युलरिज्म का बोलबाला हुआ और भारत में भी एक लंबे समय तक यह प्रभावी बना रहा । लंबे समय तक सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा फिर अचानक हिन्दु सकते में आ गये कि हिन्दुत्व खतरे में है ! बुद्धिजीवी आज तक ये समझ नहीं पाये कि आखिर वो खतरा क्या था और किससे था पर आम हिन्दु संप्रदाय ये तुरंत समझ गया या यो कहें कि उन्हें समझा दिया गया कि वो खतरा क्या और किससे है ! और ये सब आसानी से इसलिये हुआ क्योंकि वे अब सनातनी नही हिन्दु थे ! रह रह कर एक प्रश्न सामने आता है कि आखिर उन्हें हिन्दु बनाया किसने, पर सभी इसका उत्तर जानते हुये भी इस प्रश्न को टाल जाते हैं क्योकि हिन्दुत्व में सनातन से जादा कड़ापन अड़ापन और बड़ापन जैसी मिथ्या धारणाओं को आत्मगौरव की तरह अलंकृत जो दिखाया जा रहा है ।
एक लंबे समय के पश्चात् भारत की राजनीति में परिवर्तन तो आया पर गया वो फ्यूजनाइड हिन्दुत्व के हाथ में । सो वर्तमान में जो प्रयास है वो देश की पूरी जनता पर हिन्दु लोगो (जनता नहीं) और हिन्दु प्रोटोकाल की मनवाही पर आकर टिके हुये हैं । हिन्दुत्व एक विचारधारा है धर्म नही, तब निश्चित ही इसकी एक लंबीचौड़ी लाविंग भी होगी, सो चाहे न चाहे सनातनियों पर हिन्दुत्व थोपा ही जा रहा होगा । हां इससे हर सनातनी खुश हो ऐसा भी जरूरी नहीं, सनातन की पहली पंक्ति ही सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय से प्रारंभ होती है तब तो जो सनातन के आदर्शो के मरमग्य है वह इन थोथे हिन्दुत्व के असंतुलित अवसरवादी प्रोटोकाल को अपनी अर्न्तआत्मा से स्वीकार कर पायें ऐसा होना नामुमकिन था। सनातन के हिन्दुदर्शन और संधरचित हिन्दुवाद तक की यात्रा के अंतर को बुद्धिजीवी तो अच्छे से जानते थे पर दुखद ये हुआ कि आज के युवा इसे न समझ पाये, शायद ही वे ये जानते हो कि वे हिन्दु नही सनातनी है, हिन्दुत्व पर ही थम चुकी युवा मानसिकता का सनातनी अध्यात्म की उत्कृष्टता उदारता और उसकी गहराई तक पहुंच पाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । उन पर तो ये हिन्दुवाद एक धर्म के रूप में चिपका ही दिया गया, और इतना तो संध ने मुमकिन कर ही दिखाया ।
वर्तमान में चल रही बौद्धिक गंभीरता v/s युवा भिड़ंत पर एक कहानी याद आई एक गांव में एक धूर्त हुआ करता था, दवदवा उसका इतना था कि गांव में आने वाले हर पंडित को वह अपनी शर्तो पर शास्त्रार्थ के लिये मजबूर कर देता था और शर्त यही होती थी की हारने वाला अपनी लोटा लंगोटी सभी कुछ हार बैठता था । कई पंड़ित आये और उससे हारकर अपना सब कुछ कर लुटा चले गये । स्थिती ये हो गई तो कोई भी पंड़ित उस गांव में जाने से डरने लगा । तब एक दिन एक आम ग्रामीण भटकता वहां पहुंच गया पंड़ित तो नहीं था पर था बहुत विद्धान, वहां गांव के हालात पर ग्रामीणों से उसकी चर्चा हुई तो सभी ने उसे वापिस जाने की सलाह दी और उस धूर्त की करनी का बखान किया । उसने उन गांव वालों से पूछा कि आखिर क्या कारण है कि सभी पंड़ित उससे शास्त्रार्थ में हार जाते हैं खुलासा ये हुआ कि वो प्रश्न ही ऐसा करता है कि जिसके उत्तर का अंत नहीं, वो प्रश्न यह कि रामचंद्र जी के पिता का क्या नाम, उत्तर मिलने पर मिले उत्तर के पिता का नाम और पित्र नाम का यह सिलसिला एक ही लय पर चलते चला जाता है उस अंत तक जहां शास्त्रार्थी की स्मृत वंशावलि समाप्त हो जाती थी और उसे हार स्वीकार करनी पड़ती थी । तो यह थी उस धूर्त की धूर्तता, पर था तो शास्त्रार्थ का विषय । उस विद्धान ने गांव वालों से पूरी बात सुनी और बोला की उस धूर्त को दंड देने का समय आ चुका है सो तुम उसे मेरी तरफ से शास्त्रार्थ का न्योता दो ।
नियत दिन, समय धूर्त और विद्धान आमने सामने गांव की पंचायत में शास्त्रार्थ के लिये बैठै और शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ । धूर्त ने ही प्रश्न किया जैसा वो हमेशा करता चला आया था कि रामचंद्र जी के पिता का नाम क्या था विद्धान ने उत्तर दिया दशरथ तब फिर प्रश्न आया दशरथ के पिता का नाम क्या था विद्धान ने उत्तर दिया ग्यारारथ (शास्त्रार्थ का एक नियम है यदि कोई जबाव गलत होता है तो सामने वाले शास्त्री को प्रश्न अपने हाथ में रखने हेतु उसका सही जबाब देना पड़ता है) धूर्त न तो धर्म जानता था ना ही ज्ञानी था सो सही जबाव वह भी नहीं जानता था सो प्रश्न करता गया और ज्ञानी बारहरथ, तेरहरथ, चौदहरथ करते जबाव देता रहा । एक स्थिती के बाद धूर्त घबरा कर रूक गया तब उस बुद्धिमान ने कहा रूक क्यों गया अभी तो मेरे पास सौ है फिर हजार और दसहजार लाख और करोड़ शंख तक की गिनती बांकी है तूं प्रश्न कर में जबाव देते जाता हूं । पूरे गांव के सामने जहां उसकी धूर्तता की तूती बोलती थी धूर्त उस बुद्धिमान के पैरों में गिर पड़ा अपनी धूर्तता की माफी मांगी दोबारा ऐसी धूर्तता न करने की कसम खाई और धूर्तता से लूटे सारे सामान को यथोचितों को वापिस करवाया गया, गांव वाले जो अब तक उसकी धूर्तता का मजा ले अपना मनोरंजन किया करते थे, अपने किये पर शर्मिदा हुये और उस धूर्त को गांव से निकाल बाहर किया । तो यहाँ धूर्त शास्त्री हैं : संघ, सरकार , हारे पंडित हैँ : देश, जनता और तमाशबीन ग्रामीण हैँ आज का युवा संप्रदाय ।
धूर्त को तो धूर्तता ही सुधार सकती है, बुद्धि तो उसके सामने यो ही परास्त होती रहेगी । यहां कितना ही सिर मारो बुद्धि का कोई रोल नहीं । राजनैतिक धूर्तता के लिये तो धूर्त राजनैतिक ही लगते हैं, हैं भी हमारे देश में सैकड़ों की तादात में सो टकराने दो आपस में इन्हें, इस गंद का यही समाधान है । सोशल गट्स तक तो लोग बौद्धिक कलम वर्दास्त करते है रिलीजनल गट्स पर कलम उठी तो मुंह की खानी पड़ती है और मुंह पर भी खानी पड़ती है, और आजकल यही तो चल रहा है।

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