Tuesday 12 April 2016

क्रिकेट के आगे भी क्षितिज.

सत्तर के दशक की बात है छात्र जीवन में पढ़ाई के साथ एक आयाम और जुड़ा, खेल का सो खेल के मैदान का रूख किया पर समस्या ये उत्पन्न हुई की कौन सा खेल चुना जाय सो आकलन शुरू हुआ उस समय टी.टी, खोखो को लड़कियों का खेल बैटमिन्टन को डेलीगेटों का खेल और क्रिकेट को रईसजादों का शोबिज खेल माना जाता था, हाकी फुटबाल का तो वो रूतवा था कि न्यूकमर्स को धुसने भी नहीं दिया जाता था हां एक खेल बचा था जो रूतवा तो उतना नहीं देता था फिर भी व्यक्तिगत हीरो तो बनाता ही था पर उसमें परेशानी ये थी की दमखम बहुत मांगता था, क्या करते सबसे बड़ी परेशानी यही थी कि दूसरे कोई खेल जगह नही दे रहे थे या फिर पर्सनालिटी पर जम नहीं रहें थे तो एथलैटिक ही वो जगह थी जहां कुछ परेशानियों के साथ अपने आप को फिट करने का प्रयास किया जा सकता था, सो यही किया ।  

समय बीतता गया खेलकूद के स्थान पर जिंदगी के खेलों ने जगह बनाई । पीछे का सब धुंधला पड़ता गया, जिंदगी के पड़ाव में जब धुंधलका हटा तब तक बाकी के सभी खेल पीछे छूट गये थे सिर्फ क्रिकेट सर चढ़कर बोल रहा था । क्रिकेट... पीछे के समय को याद करें तो एक ऐसा खेल जो पैसे बाले रसूखदार निठल्लों का एक ऐसा खेल जहां क्रिचदार सफेद कपड़ों में ना मेहनत कर सकने वाले ज्यादातर मोटे लड़के अपने चमकदार बल्लों और गैंदों के साथ खेल रहे होते और खुद ही अपना खेल देख रहे होते थे ।  

उस समय की हाकी हो या आज का क्रिकेट इसमे खेल भावना की जगह पूर्वा ग्रह मुझे जादा दिखाई देता है । यही ब्लाग में राजीव चौधरी की लिखी कुछ पक्तियां मुझे बहुत पसंद आई उन्हें यहां कोट करना जरूरी समझता हूं “लड़ने के बहाने पहले से तय हैं अब एक अच्छा नागरिक होने के लिये मेरा कुछ को दुश्मन मानना और एक अनचाहे गर्व से भरे रहना आवश्यक है । यह घृणा और यह गर्व मेरे पुरखों ने जमा किया है पिछले 1400 सालों से मैं अभिशप्त हूं एक हजार साल के बोझ को अपने सिर पर ढ़ोने के लिये ! और अब मैं सोंपूंगा यह बोझ अपने मासूम और भोले बच्चों को क्योकि जन्म लेते ही मुझे हिन्दू , मुसलमान बना दिया गया जन्म से पहले ही मेरे दुश्मन भी तय कर दिये गये । मेरा दीन मुझे किस किस चीज की इजाजत देता है यह भी मुझे जन्म से समझा दिया गया जन्म से पहले ही मेरी जात तय कर दी गई । महाभारत न तो कभी शुरू होता है ना कभी खत्म वह तो मनुष्य के अज्ञान के साथ चलता ही रहता है । कृष्ण ने गीता कही उसके पहले भी वह चल रहा थ कृष्ण की गीता पूरी होने के बाद भी वह चल रहा है आदमी जैसा था वैसा ही है वैसा ही लड़ता रहेगा, कितना ही बचाओ कितना ही समझाओं अहिंसा का पाठ भी पढ़ाओं कोई फर्क नही पड़ेगा, वह अहिंसा के लिये भी लड़ेगा तलवारें उठ जायेंगी सर कलम हो जायेंगे अहिंसा की रक्षा जो करनी है । धर्म क्या सिखाता है ? पर वह धर्म के लिये भी लडे़गा खुद ही धर्म को खतरे में डालता है और फिर उसे बचाने का भ्रम भी पालता है ! तब भी यह नहीं सोचता कि आखिर उसके धर्म का मकसद क्या है । लड़ना उसकी फितरत है चाहे वो खेल हो या फिर जिंदगी, लड़ने के बहाने मिल ही जाते हैं ।“

जिस खेल में भारत रूचि लेगा उसमें पाकिस्तान भी या फिर इसका साइमलटेनियश । उस समय को याद करता हूं , हाकी उस समय की चूईग गम थी शहर में दो टीमें हुआ करती थी तीन चौथाई जनसमर्थन की यंगस्टार क्लब और मुस्लिम बाहुल्य की ब्रदर्श क्लब, दोनो ही टीम बहुत अच्छी थी आज दुख इस बात का होता है कि दोनों ने मिलकर किसी बड़े मैच को कभी नहीं खेला और इस तरह दोनो की कई प्रतिभायें आपस में भिड़ते लड़ते ही काल के गाल में समा गई । किसी भी मैच में जातिवाद का वो दो फाड़ जज्बा उस समय भी साफ दिखाई देता था जो अब क्रिकेट प्लेटफार्म में मोहल्ले, शहर, प्रदेश की सीमा को पार करते असमान्य राष्ट्रवाद की जड़ बन रहा है, असमान्य इसलिये क्योकि आज भी मुस्लिम पाकिस्तान की हार पर खुश होते नजर नहीं आते हां पाकिस्तान की जीत पर फटाके जरूर फोड़े जाते हैं । कहने का मतलब यह कि जब भी हम राष्ट्रवाद की भावना को केन्द्र में रखकर अपनी खेल मानसिकता बनायेंगे धूम फिर कर पाकिस्तान बीच में आ ही जायेगा और फिर हमारा खेल दायरा पहले हाकी और अब क्रिकेट तक ही सिमट कर रह जायेगा । खेल को हमेशा प्रतिद्वन्दता के नजरिये से नही प्रतिस्पर्धा के रूप में लेना चाहिये, ऐसा लगता है कि भारतीय खेल दायरा पाकिस्तान के वशीभूत है पाकिस्तान जीतने की हमारी लालसा कब आदत बन गई पता ही नहीं चला, पाकिस्तान से मुकाबला नही तो वह खेल, खेल ही नहीं ! इस हिन्दु, मुस्लिम, भारत,पाक की भावना के चलते हमने पाकिस्तान को अनजाने में ही अपने खेलों के लिये एक ऐसा खेल प्राॅॅप बना लिया जिसके वगैर कोई खेल हो ही नहीं सकता । बांध के रख दिया है हमारे खेल दायरे को पाकिस्तान ने । पहले हाकी में और अब सिर्फ क्रिकेट में ही शहद है यह भारत में किसने तय किया ? आप माने ना माने पाकिस्तान ने ! कल भी जब भारत बांगला देश से जीता तो 12 बजे रात को शहर में बने वातावरण और बम फटाकों के बीच मैच जीतने की खुशहाली से हटकर भारतीय होने का अहसास सारे शहर में कहीं अधिक समझ आया ।

हमारी खेल मानसिकता में खेल भावना की जगह जो हिडन सेंसेशन जुड़ा हुआ है, इससे नुकशान क्या हुआ ? एक दो खेलों से बंधे हम भारतीय दूसरे अन्य खेलों को जिनमें भारतीय संभावनायें तलाशी जा सकती थी और निश्चित ही इतने लंबे अंतराल में उन संभावनाओं को पोषित,फलित भी किया जा सकता था, खेल डोमेन से ही नहीं लोगों की दिली हसरतों से भी गंवा बैठे । पहले हॉकी और अब सिर्फ क्रिकेट खेल को हम खेलते रहे, इन्हें ही हम खेल की दुनियां समझते है इन्हीं पर अब हम खुश होते या गम में डूबते हैं खेल उपलब्धियों का बस इतना ही हमारा स्टाक है । ऐसा नहीं कि दूसरे खेल हैं ही नहीं पर वो उपलब्धियां अपवाद ही हैं उन्हें मेनस्ट्रीम भी नहीं कहा जा सकता ।

एक थाट दिया मैने फेसबुक पर युवाओं में छिपे उस शैडो प्लेयर को झँझोरने के लिए, Eastan Eaton की फ़ोटो के साथ आप भी पढिये :
खेल की दुनियां का हीरो क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल या कबड्डी से निकल कर नहीं आता । ये तो वो खेल हैँ जहाँ दस बारह खिलाड़ी मिल कर खेल पूरा करते है पर एक खेल ऐसा भी है जहाँ एक खिलाड़ी को दस खेल में महारथ हांसिल करनी पड़ती है और इसी से निकलता है दुनियां का सबसे महान खिलाड़ी जिसका रुतबा दुनियां में ओबामा या रोबर्ट डाउनी जूनियर (आयरन मेन) की तरह होता है । डेकाथलान एक ऐसा खेल जिस तक आज भी कोई भारतीय खिलाड़ी अपनी पहुँच नहीं बना पाया ! शायद क्रिकेट की सुरा सन्तुष्टि (एडिक्शन) लोगों को इस नशे से बाहर ही नहीं निकलने देती ? एडिक्शन मजा तो देता है पर योग्यता छीन लेता है , सैकड़ों बहुआयामी खेल प्रतिभाओं को निगल चुका है यह क्रिकेट एडिक्शन । इस दायरे को तोड़ें तो महसूस होगा कि खेल की दुनियां क्रिकेट तक ही सीमित नहीं है ! तो खोजना शुरू करे कि खेल जगत की असली बादशाहत क्या है और कौन बनता है हर चार साल बाद वो महारथी जिसका सम्मान देश का राष्ट्राध्यक्ष भी खड़े होकर करता है । ईस्टन ईटन (Eastan Eaton) 2012 लंदन ओलिम्पिक डेकाथलान चैंपियन...

क्रिकेट के खिलाफ में सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि इसमें युवा स्टारडम देखते है और उसे अपने भविष्य से जोड़ने की कोशिश करते है पर सच्चाई कुछ और ही है ,यहाँ क्रिकेट में जनभागीदारी 90 प्रतिशत है पर सक्सेस रेट .0001 से ऊपर नहीं , स्टार क्रिकेटर को छोड़कर वाकी के लिए यह क्रिकेट फ़िनामना एक चुल से ज्यादा कुछ नहीं जबकि दूसरे खेलों में भागीदारी के अनुपात में संभाग , प्रदेश और नेशनल स्तर तक सक्सेस रेट एक तिहाई से ऊपर पहुँचता है । तो युवाओं को ये संदेश की कितनी भी मेहनत करो, सिर्फ क्रिकेट के पीछे भागने से ज्यादातरों का ना सिर्फ मन में संजोया स्टारडम ही जायेगा साथ में आगे का भविष्य भी डूब जायेगा और यदि बचे खेलों पर ध्यान दें तो ना सिर्फ भविष्य संवरेगा साथ ही इसकी संभावना भी अधिक होगी की आगे आने वाला समय तुम्हें हीरो भी बना जाये.

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