Monday 19 January 2015

मोदी : नाम पर भिड़ते लोग..

जर्नलिज्म में क्रिटिक ही ऐसा प्राणी होता है जिस पर सबका फोकस होता है इतनी उंचाईयां पाकर भी गरीब छोटे बड़े, समझदार नासमझ सभी की भर्त्सना और गाली का पात्र बनता है । दुनियां को देखने का हर एक का अपना एक नजरिया होता है अभी उस दिन व्हाट्स ऐप पर सिद्धु बता रहे थे किसी ने नानक जी से ये प्रश्न किया की बाबा जी मुझे मेरे जीवन का मूल्य बताइये, बाबा जी ने उसे एक लाल दिया और बाजार में जाकर पहले उसकी कीमत पता लगा, वापिस आने को कहा । बंदा बाजार गया आलू बाले से उसका मोल लगाने कहा उसने उसे एक बोरी आलू से आंका, प्याज बाले ने उसे पांच सेर प्याज के बराबर बताया बनिये ने उसकी कीमत लाखों में लगाई अंत में जोहरी ने उसे परखा पहचाना और कहा यह तो अनमोल है दुनियां में इसकी कीमत कोई नहीं लगा सकता । बंदा असमंजस में बाबा जी के पास पहुचा आपबीती सुनाई और कहा बाबा जी आपका कहा मैने किया अब मेरे प्रश्न का जबाव मुझे चाहिये तब बाबा बोले बेटा यही तेरे प्रश्न का जबाव है ये तेरी जिंदगी है चाहे तो तू उसे एक बोरी आलू में बेच दे चाहे पांच सेर प्याज में चाहे लाखों में या फिर अनमोल बना ले ।

प्रश्न यही है कि आप सर कहां पटक रहे हैं ? कहावत भी है हीरे की परख तो सिर्फ जोहरी ही जानता है । बख्त का तकाजा है मोदी जी अभी लाल बने हुये है। ये तो खैर कोई आश्चर्य वाली बात नहीं, वो नही होते तो कोई और उनकी जगह पीएम बनकर बैठा होता पर सबसे ज्यादा आश्चर्य जनक घटना ये है कि आधे से ज्यादा भारतीय आवादी पारखी बन बैठी ! देखिये अंतर समझिये आपेक्षायें पूर्व संचित होती है पर कावलियत भविष्य निहित और इनके बीच का वर्तमान ही परख का पैमाना होता है पर लोग अतिउत्साह मे इस भविष्यतोगत्वा को भविष्य से पहले ही भविष्य में घुसेडने की कोशिश में लगे हैं वो भी इस तर्ज पर की सभी उस पर सर हिलाये ! "मुन्डे मुन्डे मतर भिन्ने" मतलब एक ही बात पर भिन्न भिन्न लोगों का अलग अलग मत हो सकता है । और यह मनुष्य की जन्मजात प्रबृति है । मत मस्तिष्क में स्वतः बनते हैं इस तरह थोपे नही जा सकते, हां उस पर सहमति जरूर तलासी जा सकती है और अक्सर मिल भी जाती है ।

राजदीप सरदेसाई टाइम स्क्वायर हादसा अभी विस्मृत नही हुआ है किस तरह पढ़े लिखे हाई प्रोफाइल भारतीय भी उत्साह और आस्था अतिरेक में कितना कुछ कर जाते है इसका ये जीता जागता उदाहरण है । ये तो हुआ मोदी जी की हिमायत का वेस्टन संस्करण, अभी यही पड़ोस के ब्लाग में इसका भारतीय संस्करण भी मैं देख आया हूं ! किस तरह आस्सी नब्वे लोगों के बीच मोदी जी की अस्मिता को लेकर उठा पटक चल रही है । एक तरफ तो लोग ये कहते नही अघाते की प्रजातंत्र मे अपनी बात रखने का सभी को अधिकार है पर दूसरी तरफ उन्ही लोगों में से कुछ निकल कर ये भी कहने लगते है अब बोला तो बोला फिर बोल के देख ! ये प्रजातांत्रिक फेस इंटरचेंज समझ से परे है ।

मोदी जी की आस्था पर सड़क से लेकर कागज तक हो रही ये भिडन्त आगे चलकर मोदी प्रभामंडल में नकारात्मकता का ही श्रृजन करेगी क्योकि मनुष्य प्रवृति में यह भी शामिल है कि उसे जिस बात के लिये जितनी ताकत से रोका जाय मानव जीन्स उसी बात को उतनी ही ताकत से करने की अंर्तप्रेरणा उसके मस्तिष्क को देते हैं । लोगों द्वारा भय बिन होई न प्रीति की तर्ज पर ओंम को अहं बनाने का प्रयास कुछ बेतुका सा लगता है ।

चाहे खुद की जिंदगी हो या मोदी जी की, मोल निकालने का तो एक ही पैमान है अपने खुद के किये अच्छे बुरे कार्य । मोदी जी ने कहा कि वर्षो के इस बिगाड़ को सुधारने हेतु बख्त चाहिये, जादू की छड़ी नही है मेरे पास । जनता ने भी ये माना सो जादू की छड़ी छोड़ मोदी जी की घड़ी थाम ली अब इस घड़ी के कांटों के साथ मोदी जी कदम मिलाकर चल पाते हैं या नही ये तो आने वाला बख्त ही बतायेगा पर उस कमबख्त के लिये हम इस बख्त क्यों आपस में लड़ रहे है ?

भक्तों और शब्दों से बनी इन लहरों में मोदी जी की नैया कैसे लोगों को बैतरणी पार कराती है इसे देखने सभी को इंतजार तो करना ही होगा। इस मोल तौल के चक्कर में अभी से न पड़े, चरितार्थ करने दें मोदी जी को अपना चरित्र, समय के साथ सब कुछ सामने आता चला जायेगा । तब तक के लिये तो सिर्फ यही कहा जा सकता है "निंदक नियरे राखिए ऑंगन कूटी छवाय बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय" । 

Thursday 15 January 2015

हिन्दी आस्था : दिशाभ्रमित दोराहा

आज से चालीस पैंतालिस साल पहले का वो बख्त मैने देखा है जब लोग हाथ में कालिख लिए अंग्रेजी की लिखावट सड़कों पर पोत रहे थे। बड़ा जबरदस्त आंदोलन था  'अंग्रेजी शासन हटा अब अंग्रेजी हटाओ' ! उस समय सरकार भी जोश में थी तो आनन-फानन में ही अंग्रेजी के विरूद्ध प्रादेशिक कानून पारित हुए और उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में तो कम से कम अंग्रेजी हिडन हो गई। मुझे अच्छे से याद है इन निर्णयों में उस समय मध्य प्रदेश में तो जिन विद्धार्थियों को सप्लिमेंट्री आई थी उन्हे भी उत्तीर्ण कर दिया गया था। पर बख्त किसने देखा था... उन कालिख पोतनेवालों में मै (सभी) भी था और आज अपनी अगली पीढ़ी को इस ग्लोबलाईस दुनिया में रीढ़ कहलाती इंग्लिश शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए पसीना बहाता भी मै (सभी) ही हूं।

भारतीय मानसिकताओं में हिंदी प्रेम कभी मरता नहीं, हां समय-समय पर करवट जरूर बदलता है। भाषा सीखना बच्चे की जरूरत है, कौन सी भाषा सिखाना है यह अभिभावकों की जिम्मेदारी है। हिन्दी पर रोते हम सभी हिन्दीप्रेमियों ने क्या कभी भी यह विचार किया कि हर पीढ़ी में वो पहला व्यक्ति आखिर कौन है जो हिन्दी की जड़ों में हींग डालता है, यदि आप घर के मुखिया है और गहराई से सोच सकते हैं तो वह उठी हुई उंगली घूमकर आपकी ओर ही आएगी।

बदलते समय के साथ-साथ हिन्दी को कामकाज में पूरी तरह भागीदारी नहीं मिली और भारतीय परिवेश में हिन्दी को मान सम्मान नहीं मिला ये दो अलग अलग मुद्दे है। हिन्दी प्रेमी हिन्दी की हिमायत करते समय भ्रमित हो जाते है की वास्तव में वो इन दोनो मुद्दों में से किसकी हिमायत कर रहे हैं। जब उसकी शख्सियत गृह प्रमुख की होती है तो वो अंग्रेजी का दामन थामे दिखते हैं और घर से बाहर निकलते ही वो आम नागरिक की हैसियत से हिन्दी का समर्थन करते नजर आते हैं । इसी मानसिकता के चलते वैश्विक जनाधार ली अंग्रेजी का तो कुछ बिगड़ता नही हां इस स्प्लिट पर्सनैल्टी में फंसी सीमित जनाधार वाली हिन्दी ही सिकुड़ते नजर आती है ।

स्वार्थ हमेशा प्रेम पर भारी पड़ता है, ये हमारी मानसिकता है पर प्रेम दिखाना हम कभी बंद नही करते ये हमारी आदत है। और यदि दोनों में से किसी एक को चुनने के लिये कहा जाए तो हम भाग खडे़े होते है ये हमारी जरूरत है। हिन्दी पुराण की इस माथापच्ची को छोड़ हम प्रायोगिकता पर आयें.. क्या चाहते हैं हम हिन्दी में काम या हिन्दी का नाम। जैसे पैसा व्यापार मे लक्ष्मी है तो भाषा व्यापार की सरस्वती, वगैर भाषाई माध्यम के मुमकिन नही की व्यापार हो सके ऐसे में तो किसी एक ऐसी भाषा को तो चुनना ही होगा जो सर्वमान्य हो अब ये अंग्रेजी की किस्मत है की वही इस रूप में निकल कर सामने आती है ।

चाहे हम हिन्दी प्रेमी कितना भी चिल्ला ले अंग्रेजी की इस सामाजिक जरूरत को हम अपने जज्बे से रोक नही सकते । तरीका जो भी हो जरूरत है उस जज्बे को रोकने की  जिसमे हिन्दी में से निकले लोगो से ही बडप्पन की खातिर हिन्दी और हिन्दी भाषियों का ही अपमान होता है । अपमानों पर व्याख्या शायद समयोचित नही होगी क्योकि इस पर पीछे सैकड़ों पन्ने भरे जा चुके हैं । इस ग्लोबल माहोल मे हिन्दी प्रेम पर एक जस्टीफाइट चाहत क्या हो सकती है ? इस पर मतान्तर तो बहुत होंगे पर मेरे अनुसार तो नई पीढ़ी उनके चुने तरीकों से हिन्दी में इतनी रूचि तो रखे कि वे उसे सहजता से समझ सके लिख सके और पढ़ सके और हां सबसे जरूरी उसे अर्न्तमन से स्वीकार कर हिन्दी भाषियों का अपमानित ना करे । और यदि वो ऐसा कर पाये तो निश्चित ही वे हम हिन्दी प्रेमियों कीे इस व्यथा को एक हद तक कम कर पायें।

Sunday 4 January 2015

तोड़ फोड़ में उलझी जिंदगियां



उस दिन मैने उस फल्ली भूनकर बेचने वाले की बातों पर गौर किया : कितनी मिन्नते शामिल थी उसके आग्रह पर बावूजी रूक जाइये फल्ली गरम भूनकर देता हूं.. उसके चेहरे पर मेरे चले जाने की सोच से बनी मायूसी थी ! क्यों कर रहा था वो ऐसा, ना ही वो उसके लिये मनोरंजन था और ना ही उसका शौक । निश्चत ही ये उसकी वो परिस्थिती थी जो उसे उसका घर चलाने हर दिन ऐसा करने पर मजबूर करती है । अक्सर मैने बंद अव्हान से मची तोड़ फोड़ भाग दौड़ और अफरातफरी के बाद हो रही चर्चाओं में इनसे कुछ मिला या न मिला हो, लोगों को मजे मिलने के बहुत से वार्तालाप संकलित किये हैं पर इस बीच मिन्नत करके फल्ली बेचने वाले उस गरीब का चेहरा हरदम मेरी आंखों के सामने इस प्रश्न के साथ बना रहा की आज इन लोगों को मिला मजा उस पर और उस जैसे कई हजार परिवारों की जिंदगी पर निश्चित ही भारी पड़ रहा होगा ।