Tuesday 12 April 2016

कश्मीर NIT: बवाल भी सवाल भी .

मदद तो की मीडिया ने पर लगता है मीडिया इस बार सावधान है , एन आई टी कश्मीर में भारतीय अस्मिता की जो लड़ाई भारत बेस्टइंडीज के मेच की हार से शुरू हुई उसको मीडिया में स्टैंड तो मिला पर उसका कोलाहल एक दिन ही दिखाई दिया । जेएनयू ,रोहित वेमुला के विवाद पर चोट खाई सरकार इतनी नसीहत तो पा ही गई होगी कि इस नये विवाद पर मीडिया प्लेटफार्म को अच्छी खासी हिदायते और थपकियां मिल ही गई होगी । ऐसा दिख भी रहा है वरना जेएनयू को महिनों खीचने वाला ये मीड़िया एनआईटी में यूं एक ही दिन में गम खाकर शांत न बैठ गया होता। अच्छा हो कि मै गलत निकलूं और ये मीडिया मूवमेंट आगे भी चलता रहे।

सीन चल रहे थे मीडिया में वहां पाकिस्तानी झंड़े फहराये जा रहे थे भारत की हार का जश्न मन रहा था ! ऐसा ही कुछ सीन तो जेएनयू में भी था, वहां तो उस समय कई देशद्रोही बने पर यहां एनआईटी में... हां याद आया वहां सरकार और उनके कन्सेन ने देश द्रोह का मुद्दा बनाया था यहां शायद सरकार ने देशद्रोहियों से अंडरटेक किया हुआ है आखिर कश्मीर एक संवेदनशील प्रांत जो ठहरा तो यहां का हर मुद्दा संवेदनशील ही होगा और यहां पर ढाई घर चलना सरकार की असंवेदनशीलता ही तो होगी ? हां एक अंतर और है जेएनयू में जो विचारधारा पकड़ो, मारो चिल्ला रही थी वो एनआईटी में बचाओ बचाओ चिल्ला रही है ! पर किससे ?
संवेदनशील कश्मीर...वहां की एक बड़ी आवादी का कहना है, कश्मीर को तुम उनके नजरिये से समझो ? सरकारें कहती है कि नहीं कश्मीर को समझने का नजरिया भी भारतीय ही होगा... समस्या भी यही है वहां के लोग हमें अपना मानते नही और हम उन्हें अपने से अलग कर नहीं सकते। लोग भी सरकारों पर अड़ जाते है कि पूरे भारत में "कश-कारी" नजरियां ही क्यों उन्हें अलग नजर आता है । भाजपा को लोगों द्वारा जिताने के कारणें में भी यही कश्मीर एक मुख्य मुद्दा रहा, कांग्रेस के शासन में जो कश्मीर भारत का भिन्न हिस्सा नजर आता था वही कश्मीर मोदी जी के भारत में लोगों कि सोच में ही भारत का अभिन्न हिस्सा नजर आने लगा ! पर संविद पात्रा ही बहस के दौरान बता रहे थे , उनके भाई कभी कश्मीर धूमने गये, पाकेटमारी की रिपोर्ट कराने जब थाने पहुंचे तो वहां की पुलिस उनसे कह रही थी भला तुम लोग हिन्दुस्तान से यहां धूमने ही क्यों आते हो!

कश्मीर से संबंधित वार्ता पर जब भी ध्यान दें , दो प्रकार के प्रतिनिधित्व नजर आते है कश्मीर टू आउटसाइड रिप्रजेन्टेशन और कश्मीर टू इनसाइड रिप्रजेन्टेशन जहां आउट साईड में अलगाव है वहीं इन साइड में वेदना पर दोनों में एक गौड मकसद कॉमन है "मोह", अलगाववादियों का लगाव जहां पाकिस्तान के प्रति हैं वही वांकियों का स्थान और संसाधन के प्रति । अन्य राज्यों से हटकर मिली सुविधा इन्हें एक तरफ तो कश्मीर से बांध कर रखती है तो दूसरी तरफ अलगाववादियों से मिली तकलीफ विचलित भी करती है । स्थान लगाव और मिल रहा संसाधन उपभोग तो इनका हक बनता है, बनना भी चाहिये पर वहां मिल रही तकलीफों पर ये केन्द्र की ओर देखते हैं आखिर अपने वतन को छोड़ना यूं भी आसान नही होता । सरकार कोई भी हो केन्द्र इस मुद्दे में हमेशा असमंजस में होता है , अपनी सम्हाले या इनकी तकलीफ दूर करे और अंत में होता ये हैं कि सरकार अपने तक सीमित होकर रह जाती है।

अलगाव जो सबसे बड़ी कश्मीरी समस्या है, इतिहास पलटें तो बांग्लादेश विभाजन दुनियां याद रखे न रखे पाकिस्तान कभी नही भूल सकता.. इस पर तो वो उसी समय से ये ठान कर बैठा है, भारत का विभाजन हो भले ही उसके छोटे से हिस्से कश्मीर के रूप में ही सही । ये बात सभी को समझ आती है सिर्फ कश्मीरी अलगाववादियों को छोड़कर , पाकिस्तान सरपरस्ती में वो अपना क्या भला देखते हैं ये समझ से परे है । आज पाकिस्तान के हालात ये है कि वो खुद को पालने की स्थिती में नहीं है ईश्वर न करे की ऐसा हो , यदि कश्मीर कभी टूटा तो सोचो क्या होगा?

बांग्लादेश विभाजन का समय कुछ अलग था और परिस्थितियां भी आज से भिन्न, आतंक की तो आहट भी न हुई थी सो वो संभल पाया आज यदि ऐसा कुछ हो तो भारत पाकिस्तान के बीच जो परिस्थितियां चल रही है पाकिस्तानी सरपरस्ती में तो निश्चित ही एक और तालिवान कश्मीर में काविज होगा । जिस दिन वहां भारत की सेना नही रही कश्मीर का संविधान और सेना बनने से पहले ही दहसत की हुकूमत वहा घर कर जायेगी और ये उसे रोक नहीं पायेंगे।

बात एनआईटी कश्मीर से शुरू हुई थी तो भा.जा.पा. के दो साल के कार्यकाल पर नजर डालते चलें, वित्तीय मेन्यूप्लेशन अब स्टार्टअप ले ही रहा है, आर्थिक प्रबंधन की असफलता महंगाई को आसमान तक पहुँचा गई, पाकिस्तान को घुटनों पर देखने की जनइच्छा नाउम्मीदी में बदली । राष्ट्रीयता और देश भक्ति की पोल एन. आई. टी. कश्मीर ने खोल दी , कश्मीर में हर शुक्रवार को कहीँ ना कहीँ पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है , आज तक किसी को सजा नहीं हुई पर एन. आई. टी. कश्मीर में तिरंगा फहराने पर वहाँ की स्टेट पुलिस स्टूडेंट को बुरी तरह पीटती है ! हालात ये हो जाते हैँ कि वहाँ के बच्चे इस कदर डरे हुऐ हैँ कि वहाँ से (अपने ही देश से ) भागने को तत्पर है और अब एन. आई. टी. वहाँ से (अपने) देश में अन्यत्र शिफ्ट करने की मांग कर रहे है ! लगता है मोदी जी के सारे दावे धुंधलाकर पीछे छूटते जा रहे है । क्या हुआ सकल राष्ट्रवाद का, देश में ही राष्ट्रीयता सुुरक्षित नहीं तब क्या कहें ... बच्चे तो सारे भारत से वहाँ हैँ । लोग भी पर्यटक के रूप में वहाँ जाते ही है ? कांग्रेस तो पी. डी. पी. के साथ वहाँ बदनाम बदशाहत रही ही रही अब मोदी जी को इस सरपरस्ति के लिये बधाई कहें या नसीहत.

क्रिकेट के आगे भी क्षितिज.

सत्तर के दशक की बात है छात्र जीवन में पढ़ाई के साथ एक आयाम और जुड़ा, खेल का सो खेल के मैदान का रूख किया पर समस्या ये उत्पन्न हुई की कौन सा खेल चुना जाय सो आकलन शुरू हुआ उस समय टी.टी, खोखो को लड़कियों का खेल बैटमिन्टन को डेलीगेटों का खेल और क्रिकेट को रईसजादों का शोबिज खेल माना जाता था, हाकी फुटबाल का तो वो रूतवा था कि न्यूकमर्स को धुसने भी नहीं दिया जाता था हां एक खेल बचा था जो रूतवा तो उतना नहीं देता था फिर भी व्यक्तिगत हीरो तो बनाता ही था पर उसमें परेशानी ये थी की दमखम बहुत मांगता था, क्या करते सबसे बड़ी परेशानी यही थी कि दूसरे कोई खेल जगह नही दे रहे थे या फिर पर्सनालिटी पर जम नहीं रहें थे तो एथलैटिक ही वो जगह थी जहां कुछ परेशानियों के साथ अपने आप को फिट करने का प्रयास किया जा सकता था, सो यही किया ।  

समय बीतता गया खेलकूद के स्थान पर जिंदगी के खेलों ने जगह बनाई । पीछे का सब धुंधला पड़ता गया, जिंदगी के पड़ाव में जब धुंधलका हटा तब तक बाकी के सभी खेल पीछे छूट गये थे सिर्फ क्रिकेट सर चढ़कर बोल रहा था । क्रिकेट... पीछे के समय को याद करें तो एक ऐसा खेल जो पैसे बाले रसूखदार निठल्लों का एक ऐसा खेल जहां क्रिचदार सफेद कपड़ों में ना मेहनत कर सकने वाले ज्यादातर मोटे लड़के अपने चमकदार बल्लों और गैंदों के साथ खेल रहे होते और खुद ही अपना खेल देख रहे होते थे ।  

उस समय की हाकी हो या आज का क्रिकेट इसमे खेल भावना की जगह पूर्वा ग्रह मुझे जादा दिखाई देता है । यही ब्लाग में राजीव चौधरी की लिखी कुछ पक्तियां मुझे बहुत पसंद आई उन्हें यहां कोट करना जरूरी समझता हूं “लड़ने के बहाने पहले से तय हैं अब एक अच्छा नागरिक होने के लिये मेरा कुछ को दुश्मन मानना और एक अनचाहे गर्व से भरे रहना आवश्यक है । यह घृणा और यह गर्व मेरे पुरखों ने जमा किया है पिछले 1400 सालों से मैं अभिशप्त हूं एक हजार साल के बोझ को अपने सिर पर ढ़ोने के लिये ! और अब मैं सोंपूंगा यह बोझ अपने मासूम और भोले बच्चों को क्योकि जन्म लेते ही मुझे हिन्दू , मुसलमान बना दिया गया जन्म से पहले ही मेरे दुश्मन भी तय कर दिये गये । मेरा दीन मुझे किस किस चीज की इजाजत देता है यह भी मुझे जन्म से समझा दिया गया जन्म से पहले ही मेरी जात तय कर दी गई । महाभारत न तो कभी शुरू होता है ना कभी खत्म वह तो मनुष्य के अज्ञान के साथ चलता ही रहता है । कृष्ण ने गीता कही उसके पहले भी वह चल रहा थ कृष्ण की गीता पूरी होने के बाद भी वह चल रहा है आदमी जैसा था वैसा ही है वैसा ही लड़ता रहेगा, कितना ही बचाओ कितना ही समझाओं अहिंसा का पाठ भी पढ़ाओं कोई फर्क नही पड़ेगा, वह अहिंसा के लिये भी लड़ेगा तलवारें उठ जायेंगी सर कलम हो जायेंगे अहिंसा की रक्षा जो करनी है । धर्म क्या सिखाता है ? पर वह धर्म के लिये भी लडे़गा खुद ही धर्म को खतरे में डालता है और फिर उसे बचाने का भ्रम भी पालता है ! तब भी यह नहीं सोचता कि आखिर उसके धर्म का मकसद क्या है । लड़ना उसकी फितरत है चाहे वो खेल हो या फिर जिंदगी, लड़ने के बहाने मिल ही जाते हैं ।“

जिस खेल में भारत रूचि लेगा उसमें पाकिस्तान भी या फिर इसका साइमलटेनियश । उस समय को याद करता हूं , हाकी उस समय की चूईग गम थी शहर में दो टीमें हुआ करती थी तीन चौथाई जनसमर्थन की यंगस्टार क्लब और मुस्लिम बाहुल्य की ब्रदर्श क्लब, दोनो ही टीम बहुत अच्छी थी आज दुख इस बात का होता है कि दोनों ने मिलकर किसी बड़े मैच को कभी नहीं खेला और इस तरह दोनो की कई प्रतिभायें आपस में भिड़ते लड़ते ही काल के गाल में समा गई । किसी भी मैच में जातिवाद का वो दो फाड़ जज्बा उस समय भी साफ दिखाई देता था जो अब क्रिकेट प्लेटफार्म में मोहल्ले, शहर, प्रदेश की सीमा को पार करते असमान्य राष्ट्रवाद की जड़ बन रहा है, असमान्य इसलिये क्योकि आज भी मुस्लिम पाकिस्तान की हार पर खुश होते नजर नहीं आते हां पाकिस्तान की जीत पर फटाके जरूर फोड़े जाते हैं । कहने का मतलब यह कि जब भी हम राष्ट्रवाद की भावना को केन्द्र में रखकर अपनी खेल मानसिकता बनायेंगे धूम फिर कर पाकिस्तान बीच में आ ही जायेगा और फिर हमारा खेल दायरा पहले हाकी और अब क्रिकेट तक ही सिमट कर रह जायेगा । खेल को हमेशा प्रतिद्वन्दता के नजरिये से नही प्रतिस्पर्धा के रूप में लेना चाहिये, ऐसा लगता है कि भारतीय खेल दायरा पाकिस्तान के वशीभूत है पाकिस्तान जीतने की हमारी लालसा कब आदत बन गई पता ही नहीं चला, पाकिस्तान से मुकाबला नही तो वह खेल, खेल ही नहीं ! इस हिन्दु, मुस्लिम, भारत,पाक की भावना के चलते हमने पाकिस्तान को अनजाने में ही अपने खेलों के लिये एक ऐसा खेल प्राॅॅप बना लिया जिसके वगैर कोई खेल हो ही नहीं सकता । बांध के रख दिया है हमारे खेल दायरे को पाकिस्तान ने । पहले हाकी में और अब सिर्फ क्रिकेट में ही शहद है यह भारत में किसने तय किया ? आप माने ना माने पाकिस्तान ने ! कल भी जब भारत बांगला देश से जीता तो 12 बजे रात को शहर में बने वातावरण और बम फटाकों के बीच मैच जीतने की खुशहाली से हटकर भारतीय होने का अहसास सारे शहर में कहीं अधिक समझ आया ।

हमारी खेल मानसिकता में खेल भावना की जगह जो हिडन सेंसेशन जुड़ा हुआ है, इससे नुकशान क्या हुआ ? एक दो खेलों से बंधे हम भारतीय दूसरे अन्य खेलों को जिनमें भारतीय संभावनायें तलाशी जा सकती थी और निश्चित ही इतने लंबे अंतराल में उन संभावनाओं को पोषित,फलित भी किया जा सकता था, खेल डोमेन से ही नहीं लोगों की दिली हसरतों से भी गंवा बैठे । पहले हॉकी और अब सिर्फ क्रिकेट खेल को हम खेलते रहे, इन्हें ही हम खेल की दुनियां समझते है इन्हीं पर अब हम खुश होते या गम में डूबते हैं खेल उपलब्धियों का बस इतना ही हमारा स्टाक है । ऐसा नहीं कि दूसरे खेल हैं ही नहीं पर वो उपलब्धियां अपवाद ही हैं उन्हें मेनस्ट्रीम भी नहीं कहा जा सकता ।

एक थाट दिया मैने फेसबुक पर युवाओं में छिपे उस शैडो प्लेयर को झँझोरने के लिए, Eastan Eaton की फ़ोटो के साथ आप भी पढिये :
खेल की दुनियां का हीरो क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल या कबड्डी से निकल कर नहीं आता । ये तो वो खेल हैँ जहाँ दस बारह खिलाड़ी मिल कर खेल पूरा करते है पर एक खेल ऐसा भी है जहाँ एक खिलाड़ी को दस खेल में महारथ हांसिल करनी पड़ती है और इसी से निकलता है दुनियां का सबसे महान खिलाड़ी जिसका रुतबा दुनियां में ओबामा या रोबर्ट डाउनी जूनियर (आयरन मेन) की तरह होता है । डेकाथलान एक ऐसा खेल जिस तक आज भी कोई भारतीय खिलाड़ी अपनी पहुँच नहीं बना पाया ! शायद क्रिकेट की सुरा सन्तुष्टि (एडिक्शन) लोगों को इस नशे से बाहर ही नहीं निकलने देती ? एडिक्शन मजा तो देता है पर योग्यता छीन लेता है , सैकड़ों बहुआयामी खेल प्रतिभाओं को निगल चुका है यह क्रिकेट एडिक्शन । इस दायरे को तोड़ें तो महसूस होगा कि खेल की दुनियां क्रिकेट तक ही सीमित नहीं है ! तो खोजना शुरू करे कि खेल जगत की असली बादशाहत क्या है और कौन बनता है हर चार साल बाद वो महारथी जिसका सम्मान देश का राष्ट्राध्यक्ष भी खड़े होकर करता है । ईस्टन ईटन (Eastan Eaton) 2012 लंदन ओलिम्पिक डेकाथलान चैंपियन...

क्रिकेट के खिलाफ में सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि इसमें युवा स्टारडम देखते है और उसे अपने भविष्य से जोड़ने की कोशिश करते है पर सच्चाई कुछ और ही है ,यहाँ क्रिकेट में जनभागीदारी 90 प्रतिशत है पर सक्सेस रेट .0001 से ऊपर नहीं , स्टार क्रिकेटर को छोड़कर वाकी के लिए यह क्रिकेट फ़िनामना एक चुल से ज्यादा कुछ नहीं जबकि दूसरे खेलों में भागीदारी के अनुपात में संभाग , प्रदेश और नेशनल स्तर तक सक्सेस रेट एक तिहाई से ऊपर पहुँचता है । तो युवाओं को ये संदेश की कितनी भी मेहनत करो, सिर्फ क्रिकेट के पीछे भागने से ज्यादातरों का ना सिर्फ मन में संजोया स्टारडम ही जायेगा साथ में आगे का भविष्य भी डूब जायेगा और यदि बचे खेलों पर ध्यान दें तो ना सिर्फ भविष्य संवरेगा साथ ही इसकी संभावना भी अधिक होगी की आगे आने वाला समय तुम्हें हीरो भी बना जाये.