Wednesday 31 December 2014

पाखंडियों पर उग्रता क्यों नहीं ......


ये तो संत समाज से जुड़ी घटनाओं से ही निकल कर आया है कि उनमे पाखंड है तो इन सारे साधु संत और धर्म से जुड़े इन फुटकर संगठनों का आक्रोश उन पर क्यों नही हैं । उन्हे सुधारने के प्रयास इनकी ओर से तो नही हो रहे ? कानून व्यवस्था को क्यों ये जेहमद बार बार उठानी पड़ रही है ! यदि धर्म की जिम्मेदारी लेनेे का दावा हैं तो सिर्फ भर्त्सना करके क्या जिम्मेदारी खत्म हो जाती है । इतनी उग्रता यदि पाखंडियों के प्रति दिखाई जाती तो धर्म सड़को पर यो तमाशा न बन रहा होता ।। 

Monday 29 December 2014

पी.के. पर विवाद


अब पी.के. पर विवाद तोड़ फोड़ और फिर इस पर बहस । आमिर ने  असर की आपेक्षा तो की होगी पर अपनी आपेक्षा को इस रूप में  देखने की तो उसने भी कल्पना न की होगी । क्या है इस फिल्म में जो लोग तोड़ फोड़ पर  उतर आये और ये जो सब हो  रहा है क्या सही है ? बीएचपी  बजरंग दल  और बहुत से साधु संतो ने  इसे आस्था हनन करार दिया है । पर फिल्म इंडस्टीज और उससे जुड़े लोग इसे अंधविश्वास का निवारण कह रहे  है ।

वर्तमान समय में अंधविश्वास के विरोध में कफी बड़ा जनसमुुदाय लामबंद हुुआ है और इसे समाज के लिये अच्छा शगुन कहा जा सकता है । पर इस पर विरोध इतना भी आसान नही है अंधविश्वास भी दो फाड़ है सामाजिक अंधविश्वास को तो दकियानूसियत या रूढ़ीवाद जैसी शब्दों की शह पर मात दी जा सकती है पर धार्मिक अंधविश्वास का विरोध करके जो परिस्थितियां बनती है या यों कहें कि बना दी जाती है उनसे पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल हो जाता है । लोग तो इसमे सहष्णु है पर संगठन इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं है, लोग चाहें न चाहें पर हर परिवर्तन या सुधार का रास्ता अपने आप को धर्म-समाज की चलनी कहलवाते ये तथाकथित सरमायेदार संगठन अपने में से होकर जबरन गुजारते है । यहां भी वही परेशानी है पचास साठ करोड़ लोगों की धार्मिक मानसिकता को दो चार संगठन और उनमें के मुट्ठी भर लोग ही मिलकर तय करते हैं । वर्तमान सरकार के लियें धर्मान्धता एक महती जरूरत बन चुकी है इन पदासीनों और इनके संगठनों ने पिछले पंद्रह सालों में बड़ी मेहनत करके ये चश्मा एक एक आदमी को पहनाया है ऐसे में अचानक से आमिर खान का पीके आकर उस चश्मे को लोगों में से उतारने की कोशिश करे तो वो तो लात खायेगा ही ! अब इस घटना को धर्महित में कहें या स्वंहित ये यक्ष प्रश्न तो बना ही रहेगा ।

आमिर खान अच्छा सोचते है अच्छा करने की इच्छा भी रखते है पर गल्तियां तो हुई हैं उनसे, प्रहार कुप्रथाओं पर हो प्रथाओं में नही… वो एक कहावत याद आती है चोट सही जगह और सही समय देखकर की जाती है ! जगह तो सही चुनी आमिर ने पर समय गलत हो गया । अभी लवजेहाद हिन्दु समुदाय में पूरे साल गर्म कर कर के छेद करता रहा है । गिने चुनों को छोडकर पूरी हिन्दु कम्यूनिटी इस पर खुलेआम या चोरीछिपे विरोध ही करती नजर आई ऐसे में भारतियों की सहजवृति में संवेदनशील बना हिन्दु मुसलमान रोटी बेटी का रिश्ता जो कल्पना मेे ही नाइट मेयर बनाता है तब अंधविश्वास निवारण जैसे संवेदनशील विषय के साथ भारत को पाकिस्तान का समधियाना बनाने जैसी अतिसंवेदना इसमें और जोड़ने की क्या जरूरत थी।

आमिर खान शायद भूल गये की वो कोई लव स्टोरी नही बना रहे न ही सांस्कृतिक सौहार्द पर ये फिल्म है इतने संवेदनशील विषय के साथ तो अत्यन्त सावधानी से पेश आना चाहिये था, रचनात्मकता गई सो गई शख्सियत को ही निशाने पर ले लिया इन्होने, अवसरवादी आहत भावना की आड़ लेकर न सिर्फ धर्म मे बसते इन अंधविश्वास को संरक्षण देने के साथ दोबारा कोई दूसरा किसी भी माध्यम से ऐसे प्रयास न करे ये संदेश भी समाज पर चिपकाने में कामयाब रहे । पैसा भले ही कमा ले ये फिल्म पर समाज के पुर्ननिर्माण का जैसा संदेश समाज तक जाना चाहिये था वो उस रूप में तो नही पहुच पायेगा । ओएमजी में भी ऐसे ही मुद्दे उठाये गये थे पर फिल्म में अतिरेक नियंत्रण में था सो उसे इन परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा । साफ है ओएमजी छाप छोड़ने में कामयाब रही पर पीके अपने पीछे विवाद जरूर छोड़ जायेगी।
आमिर की काबलियत पर शक तो नहीं किया जा सकता परिवर्तन की राह पर इतनी जेहमत और जिल्लत तो उठानी ही पड़ती है बौद्धिक्ता उनके साथ है एक बहुत बड़ा जनसमुदाय जो सीधा इन विध्नसंतोषियों का विरोध नही कर सकता वो इनके साथ है तो देर सबेर मकसद रास्ता पकड़ ही लेगा इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है ।









Saturday 27 December 2014

धर्मपरिवर्तन: आज के परिवेश में


अजीब सा माहोल हो चला है यहां, सत्ता बदलते ही सरकार के साथ साथ एक समानान्तर व्यवस्था का पदार्पण जिसमें सनातनी धर्म संरक्षण की मुहिम का लगातार आव्हान किया जा रहा है । घर वापिसी अभियान, हिन्दु राष्ट्र घोषणा, गैर धर्मियों के लिये जगह नही ये सब कोटेसन वही से निकल के आ रहे हैं । ऐसा लगने लगा है जैसे सनातन धर्म खतरे में हैंं । अब तक तो धर्म के प्रति समर्पण ही देखने सुनने में आता था अब अचानक से धर्म के प्रति सजगता भी दिखाई पड़ने लगी है जैसे धर्म आस्था नही संपत्ति हो गया और जिसके लुटने का भय पैदा हो गया सो अब इसकी रक्षा में कमर कसने का समय आ गया है ? मेरी इन टिप्पणियों पर शायद बहुत सी आलोचनायें निकल कर सामने आयें पर धर्म से जुड़ी आस्था मेरा विषय नही है पर धर्म के इर्द गिर्द निर्मित परिस्थितियों पर मेरा केन्द्रण है । प्रश्न वही है कि आखिर धर्म को किस बात का खतरा है हिन्दू कहते है मुसलमानों से और मुसलमान कहते है हिन्दु से, बीच में समानुपातिक भाव से क्रिश्चियनटी को भी जोड़ दिया जाता है । अब मुसलमान तो पूरी दुनिया के धर्माे को इस्लामियत के लिये खतरा बताने लग गये हैं, खैर यहां हिन्दुओं पर बात हो रही है तो उसे ही आगे ले चलते है । वास्तविक्ता में इस प्रश्न की सच्चाई तो कही बहुत नीचे छिपी पड़ी है जिस तक आम लोग पहुच ही नही पा रहे है !
जो जिस संस्कार में जनमता है वही उसका वास्तिविक धर्म होता है हिन्दु के यहा हिन्दु और मुुसलमान के यहां तो मुसलमान ही पैदा होगा क्योकि परिवार के दिये संस्कार ही आखिर उसे हिन्दु या मुसलमान बनाते हैं । जहां तक संस्कारों को बदलने की बात है तो हमारे देश में इसे यो आसानी से नही बदला जा सकता क्योकि अब तक तो संस्कारों को ही हमारे देश की अस्मिता और स्थिरता की निशानी माना जाता रहा है । ये जो रिलीजनस आउटलेट वर्तमान में नजर आ रहे है ये समाज में कब और कैसे शामिल हुये इसका तो मुझे ठीक से पता नही पर लोग बताते हैं कि हमारे देश में इसकी शुरूआत मुगलों ने अपने शासन काल में हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाने से शुरू की । औरंगजेब के शासनकाल में तो इसकी पराकाष्ठा थी ऐसा इतिहास बताता है । गौर करें मुगलों के पास उस समय आज के प्रजातंत्र से कही बहुत जादा स्वतंत्रता थी ताकत भी बहुत थी पर उनके आने से लेकर अब तक करीब आठ सौ साल बीत गये दो सौ साल यदि अंग्रेजी हुकूमत के भी हटा दिये जाये तो चाहे मुगल शासित या अंग्रेजी शासित, इतिहास वर्णित इतनी जोर जबरदस्ती के बाद भी इतना लंबा अर्सा ली ये त्रासदी हिन्दुत्व को कितना कम कर पाई ? मुझे तो ऐसा नही लगता हां अलवत्ते हिन्दुओं के अपने खुद के धर्म में उनकी समर्पण वृत्ती दिन व दिन घटती जरूर नजर आती है पर वो एक अलग मुद्दा है और इसे किसी भी तरह धर्मपरिवर्तन से जोड़कर नहीं आका जा सकता ।
ज्ञान जब धर्म की पोर में पिरोया जाता है तो उसमें का कटा फटा सब सिलते चला जाता है…. यही हुआ इसमे, रूढि़वाद बिखरता चला गया दिन व दिन, और यही सनातन की विशेषता है क्योकि हद से जादा कठोरता लंबे समय तक बर्दास्त करना मनुष्यवृति में शामिल ही नहीं, इन्कार कर देता है वह इसे मानने से, सनातनी लचीलापन ही इसे टूटने नही देता तभी इतनी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी इतना लंबा समय तय करते हुये आज तक सनातन अपना अस्तिित्व बचाते चला आ रहा है और यही लोच जिसे हम खुद आज इसकी कमजोरी बताकर पेश कर रहे है इस सनातन धर्म की पर्वत जैसी स्थिरता का कारण है ।

धर्म कोई दुकानों में बिकने बाला सामान नही जो आज इस ब्रांड़ का ले लिया कल दूसरे ब्रांड़ का ? पर ऐसा हो तो रहा है। हां इस एक्सचेंज आफर के दोनो तरफ की ईकाइयां अपनी धार्मिक निष्ठा और ईमानदारी को लेकर अब दिन बीतने के साथ स्वमेव कटहरे में खड़ी होती चली जा रही हैं ।
अपवाद रहित श्रृष्टि का श्रृजन तो हुआ ही नही क्योंकि हमारी दुनियां पूरे ब्रम्हांण में खुद एक अपवाद है ऐसे में किचित धार्मान्तरण को अपवाद न लेकर धर्मसंकट निरूपित करना राजनैतिक या समाजिक मुद्दा तो हो सकता है पर धर्मसंकट कभी नहीं ।
यदि आप ईश्वर को मानने वाले है तो यकीन रखिये धर्म कभी नही मरता क्योकि धर्म भौतिक न होकर एक आध्यात्मिक प्रवाह है ईश्वर जिसकी आत्मा है, हां स्वार्थबस धर्म को बचाने का प्रपंच जरूर किया जा सकता है । मैने बहुतो को इस पर्वत के हिलने का दाबा और फिर इसे बचाने का भ्रम पालते देखा है । भला ईश्वर जिसकी आत्मा है उसके प्राण कैसे हरे जा सकते हैं । ईश्वर कोई भी हो जब इस पर विश्वास है तो उसकी योग्यता पर संदेह क्यों ……

Tuesday 23 December 2014

हिन्दी ब्लागिग: चिंतित उत्सुक्ता

इन दिनों विचारों की अभिव्यक्ति में एक तूफान सा आया हुआ लगता है । प्रजातंत्र में अपने अपने विचारों को लोगों तक पहुचाने का सभी को हक है । विचारों को लोगो के सामने रखने रोज एक नया प्लेटफार्म  सामने आ रहा है जाहिर सी बात है नित समझदार होती इस दुनियां में विचारों के इस आयात निर्यात से मचीं भगदड़ में बहुत कम समय में ही सही गलत, तुके बेतुके, अजीबो गरीब इतने ज्यादा विचारो का जमाबड़ा हो गया कि लोग विभ्रम की अवस्था तक पंहुच गये सीखे या छोड़ै हंसे या रोये आज लोग असमंजस की स्थिती में हैं सो विचार तो नही हां विचारों के प्रस्तुती के तरीके ही चर्चा का विषय बन गये ।
कभी युवाओं से चर्चा कीजिये वो आपको बतायेंगे एक लाईन से ज्यादा की इबारत को पढ़ने का समय नही है उनके पास, चित्रों सें ही बात हो जाती है, आजकल की युवा मानसिकता स्टेटस और चित्र प्रदर्शन पर ही खत्म हो जाती है शायद इसी कारण उन्हे ज्यादा आकर्षित करती फेसबुक सोसल नेटवर्किग साइट सबसे ज्यादा भीड़ भरी है। कालेज परिसर से निकल उन्ही के बीच में जवान हुआ यह प्लेटफार्म अंत में इन्ही यूथ को हड़पने मिला । एक ऐसा बहाव जो आज से लेकर कल तक में सब कुछ बहा ले जाता है इसमें आकर विचार तो गुम हो ही जाते है, हां इधर उधर अपनी शख्सियत तलासते सैकड़ों युवा जरूर नजर आते हैं पर भीड़ का वो रेला न तो विचारों को बचा पाता है और न ही शख्सियत को, चार पांच नौसिखिये भी एक साथ सुर मिलाकर कोरस को सुर में साध लेते हैं पर सौ, दोसौ पेशेवर गवैयो को एक साथ गाने कहा जाय, वो भी अपने अपने सुरों मे तो वो एक सुन्दर गीत तो नही हां एक घटना बनकर जरूर सामने आयेगा सो इस भीड़ में क्षणिक मौजूदगी दर्शाते इस प्लेटफार्म में विचारों के लिये कोई जगह नही है भले ही वर्ग विशेष को ये आनंददायी जरूर लगे पर "गुड माररररर्निग टू ऐवरीवडी ईट्स मी, फ्राम माई बाथरूम" जैसे श्लोगनों के साथ इसमें गम्भीरता के लिये कोई जगह नही, युवा ये समझे न समझे पर उम्रदराजों को ये समझ आ गया है सो इसमें प्रवेश से ज्यादातर अनुभवी कतराने लगे है।
यहां की नाउम्मीदगी ट्बीटर से पूरी हो इस आशय पर लोग बताते है कि हां यह बुद्धिजीवियों की मौजूदगी वाला ऐसा माध्यम है जहां विचारो को कुछ जगह मिल सकती है पर ट्बीटर का नजारा तो ज्यादा ही निराला है, प्रभुतावाद की धारणा लिये इस माध्यम में आपको बुद्धिजीवियों के चरणचिन्ह नजर आयेंगे जिनका अनुकरण करते हुये आप उन तक जायें उनकी प्रशंसा करे और वापिस आ जायें । आप जैसे साधारणों के विचार वहां पड़े तो रह सकते है पर उन पर नजर डालना इन सुपरलेटिव की शान के खिलाफ है । वैसे भी 160 अक्षरों में आप क्या विचार दे सकते है... हां विचारों के ऐसेट्स किसी साइट के रूप में आपके पास हो और उनको दम देती इतनी शख्सियत आप बना सकें तो आपको छूने की होड़ भी मच सकती है पर ऐसा हर एक के लिये संभव नही है । ट्बीटर की ये पगमार्क वंदना न सिर्फ आपके अंदर के लेखक को कुंठित करती है बल्कि हर क्लिक के साथ आपके लेखनी मनोबल को लगातार कमजोर करते चली जाती है सो हतासा देता यह सामंत वादी प्रसार माध्यम भी आपके लिये यही खत्म हो जाता है ।
हां ब्लाग एक ऐसा प्लेटफार्म है जहां कोई देखे न देखे, कम से कम आपके विचारों का अस्तित्व बना तो रहता है । यहां भी इग्लिश ब्लागरों को तो शकून है पर समस्याओ के साथ शुरू हुई हिन्दी ब्लागिग अभी तक शिशु अवस्था में ही है । ब्लागर्स तो बहुत है पर दर्शको में इसका जनाधार अब तक नही बन पाया है, शायद जितने ब्लागर्स है उनसे कुछ बीसे इक्कीस इसके विजिटरों की संख्या होगी। हिन्दी बोलना पढ़ना आजकल शान के खिलाफ हो चला है सो बदलते समय के इन प्रसार माध्यमों में बूढ़ी हो चली इस सीमित दर्शक दीर्घा के साथ इन चिटठो को कब तक प्राणवायु मिलती रहेगी इसका जबाव तो भविष्य की गर्त में है । इस पर प्रयास और वर्कआउट तो बहुत हो रहे हैं पर हिंदी ब्लागों का आकर्षण तो सीधा दिन व दिन कठिनाईया लिये सीमित होते हिंदी भाषा के प्रचार, प्रसार और प्रचलन पर ही आकर ठहरता है । प्रश्न यह नही है कि हिन्दी विचारकों के नाम गुम हो जायेंगे हां चिंता इस पर होती है कि भविष्य में हिंदी विचार ही कही गुम होकर न रह जायें ।

Friday 19 December 2014

पेशाबर : खिदमत की जेहादियत नही मनसूबों की जल्लादियत है.

Protest in Karachi, 19 Dec
पेशाबर के मिलिटी स्कूल में 16 /12 को आतंकवाद ने हर बार से हटकर शिशु नरसंहार को अंजाम दे इन्सानियत को फिर एक बार लाल कर डाला । तो शायद अब मुसलमानों का भी कुछ हटकर अलग तरीके से सोचने का बख्त आ चला है ? अपने आप को खुदाई खिदमतगार कह खुदा को भी नामंजूर इस खून खराबे को जेहाद बताने बाले इन चंद नाफरमानों ने मुसलमानी कोख को भी लाल कर दिया, अब तो मुसमलमानों कोे समझ आनी चाहियें की ये खिदमत की जेहादियत नही मनसूबों की जल्लादियत है । 
गैर मुस्लिमों में ये कहाबत चल पड़ी है ये सच है कि हर मुसलमान आतंकवादी नही है पर ये भी सच है कि हर आतंकवादी मुसलमान है । झुंड़ तो उन्हीका है और इसे दुनियां भर में इस्लाम की हिमायती मुहिम के रूप में पेश भी किया जा रहा है इससे भी इन्कार नही किया जा सकता। मैं गैर इस्लामी हूं पर मुझे भी बुरा लगता है मुट्ठी भर लोगों के पाप पूरों के सर मढ़ दिये जायें ? ऐसा क्यों हो रहा है इसका भी एक कारण है, गलत हो या सही ये सब इस्लाम के नाम पर हो रहा है इसे तो नकारा नही जा सकता अब यदि मुस्लिम बौद्धिकता इसे गलत मानती है तो फिर इनमें इस विचारधारा का पोषण तो नही कहा जा सकता पर दबे छिपे प्राश्रय या पनाह की मानसिकता क्यों, खुलकर इसका विरोध क्यों नहीं ? यदि ये बर्बरता इस्लाम के विपरीत है तो इसके विरोध में तो मुसलमानों को ही सामने आना होगा । पर ऐसा हो नहीं रहा है, पूर्वाग्रह या भय ऐसे दो कारण दिखाई पड़ते हैं जिसके कारण इस बर्बरता के विराध में ज्यादातर मुसलमान मुखर होकर सामने नहीं आ पा रहे हैं ।
कारण जो भी हो उन्हें ही अपनों को ये समझाना होगा कि ये खुदाई खिदमत तो कहीं से नजर नही आती । ताज्जुब है कितनी आसानी से दहशतगर्द उन्हें ये समझा देते है कि अल्लाह की खिदमत में की गई इस जेहाद और उससे हुई नुकसानी को अल्लाह की राह में दी कुर्बानी समझ इसे बेखौप अंजाम दें ! इससे सब किया धरा माफ ही नहीं होगा ये बंदे को जन्नत भी नसीब करायेगा । कितनी गलत फिलासफी है ये जिंदगी के बाद की उस अंजान दुनियां में जन्नत पाने, इस ओर की जन्नत जैसी जानी पहचानी दुनियां को जहन्नुम बनाना .... इस बर्बरता को कुर्बानी करार देते हैं ये पर जहां तक मुझे पता है कुर्बानी उसी की दी जा सकती है जिस पर उनका हक हो ? तो सारी दुनियां भर के लोगों पर इन मुट्ठी भर लोगों को किसने हक दे दिया ये भी समझ से परे है। इस्लाम की इन साधारण बातों को भी कितने गलत तरीके से इस्लामियों को ही समझा दिया जाता हैं, ताज्जुब होता है यह देखकर ।
गैर मुसलमान इस पर चर्चा तो जरूर करता है पर क्या फर्क पड़ता है इससे हां यदि इस पर मुस्लिम समाज में चर्चा हो, इस्लाम की बातें इस्लामी ही अपने लोगों में कहें तो जरूर फर्क पडे़गा । सिर्फ और सिर्फ मुसलमान ही इसका विरोध कर समझा सकता है अपनों को, क्योकि इसका हल ही मुस्लिम विचार धारा के सही बहाव पर टिका है। आवाज तो उठती देखी है इस पर, पर सिर्फ मुस्लिम राजनैतिक मुखैटों से । इसका निदान यदि चाहिये तो उनके हर घर के खप्पर से इसके विरोध में आवाज उठनी चाहिये...... इस्लाम में इन्सानियत को बहुत उंचा दर्जा दिया गया है पर किताब के बाहर इस छबि को कौन दागदार कर रहा है, अब हर स्तर के मुस्लिम वर्ग को इसे समझ जाना चाहिये, समझाते जाना चाहिये....


Wednesday 17 December 2014

तिरस्कृत वृद्धावस्था : सच होती कहानी

परिवर्तन श्रृष्टि का शाशवत् नियम है इसी परिवर्तन के परिवहन से हम पाषाण युग से अब तक का समय तय करते चले आ रहे हैं। इसके मूल में जिज्ञासा है और यही जिज्ञासा बुद्धि का प्रादुर्भाव करती है । पर श्रृष्टि का यह परिवर्तन पथ है बहुत क्रूर, कितनी ही प्राणी जातिया, संस्कृतियां और अब तक की तिथियां सब निगल गया अपने अंदर और फिर भी इसकी यह न खत्म होने वाली भूख बरकरार है । पर इतना सब खोने के बाद भी हर परिवर्तन के पश्चात् मनुष्य अपने को पहले से ज्यादा श्रेष्ठ समझता चला आ रहा है । भौतिक नजरिये से ये बात ठीक लगती है पर अध्यात्मिक दृष्ठि डाले तो मनुष्य की इस तथा कथित श्रेष्ठता में हजारों सिकुड़ने नजर आती है ।
इस पर विषय तो बहुत से है जिन पर चर्चा होनी चाहिये पर वर्तमान में वो एक विषय जिससे समाज स्वयं लजाने लगा है परिवारिक प्रतिष्ठा के अहंभाव से ग्रसित यह विषय अखबार की सुर्खिया बन कर तो नही बोलता पर हां इस “वृद्ध बहिष्कार” के चर्चे जन श्रृतियों में इधर उधर बिखरे हर कहीं बहुतायत से नजर जरूर आने लगे हैं । परिवारो के लिये वृद्धावस्था अब चिंता का नही अपितु परेशानी का विषय बन गई है सो अवस्था परिवर्तन की इस डगर में ये परिवहन विहीन वृद्ध अपने अस्तित्व को तलासते दर दर की ठोकरें खा रहे हैैं । समझ नही आता किस भावना के वशीभूत उनके खुद के परिजन उनकी संतान कैसे इतनी तंगदिल हो सकती है । हां वृद्ध बहिस्कार पर एक पुरानी कहानी याद आई प्रंसगवश उसका समावेश यहां उचित लगता है ।
किसी समय भटकते बंदरों का एक झुंड़ एक राजा के राजमहल में बने बागीचे में जा पहुंचा । बागीचे से लगा घुड़साल था उसके आस पास सूखी घास का जमाबड़ा था और वही बगल में राजा की पाकशाला थी फिर क्या था खाने को बचा भोजन  और उछल कूद को बागीचा, बंदरों ने वहीं अपना ढेरा डाल लिया । दिन मजे से कटने लगे राजा ने उस समय के रिवाज से दूध के लिये गायों के साथ कुछ बकरियां भी पाल रखी थी उनमें यदा कदा भेढ़ भी थी । सारे बंदर उछल कूद करते पर उनसे से एक बुजुर्ग बंदर आराम के समय में वहां की गतिविधियों पर ध्यान देता बकरियों में की एक भेढ़ जिसकी पाकशाला में मुंह मारने की आदत पड़ गई थी अक्सर पाकशाला में धुस जाती तब वहां का सहायक पंडित उसे भगाने, सामने जो भी चीज हो दे मारता । वृद्ध बंदर बार-बार इस घटनाक्रम को पुनरावृत होते देखता और चिेतित हो जाता । एक दिवस उसने सारे बंदरों को इकट्ठा किया और इस घटना का जिक्र उन सभी के सामने किया दूसरे बंदरों ने इसे सुना तो पर कहा यही कि भेढ़ की इस आदत से उन्हे क्या फर्क पड़ने बाला है तब बुजुर्ग बंदर ने कहा कि चिंता भेढ़ की आदत से नही रसोईये की आदत से हो रही है उसे भगाने जो भी चीज हाथ में आती है दे मारता है किसी दिन रसोई बनाते जलती लकड़ी ही दे मारा तो ? तो इससे क्या होगा … बुजुर्ग बंदर ने समझाने की कोशिश की, कहा भेढ़ के बाल है जलती लकड़ी से बाल आग पकड़ लेगें तब भेढ़ घबराकर इघर उधर भागेगी यदि घास के बाड़े तरफ गई तो उनमें आग लग जायेगी और यह आग अपने साथ साथ घोड़ों को भी जला देेगी इस शंका के साथ उसने मुख्य निष्कर्ष दिया मनुष्यों के चिकित्सा विधान में कहा गया है कि यदि घोड़ों के जले में बंदर की चर्बी लगाई जाये तो उनके घाव शीघ्र ठीक हो जाते है चूकि घोड़े युद्ध के लिये आवश्यक साधन है ऐसे में उन्हे बचाने , बदंरो को मारने में राजा को जरा भी परहेज नही होगा । हम सब के सब मारे जायेंगे सो भविष्य में आने वाली आपदा से पहले ही हमें यहा से निकल जाना चाहिये । बांकी बंदरों ने उस वृद्ध बंदर को हिमाकत की नजर से देखा उसकी इस सोच का मजाक उड़ाया और फिर खेल कूद में लग गये ।
वृद्ध बंदर दुखी मन लेकर बहां से चल पड़ा राजमहल के बाहर आ एक वृक्ष में पनाह ले किसी अनहोनी की राह देखने लगा । फिर एक दिन हुआ भी वही रसोइये ने भेढ़ को जलती लकड़ी दे मारी उसके बाल जलने लगे घबराकर बह धास के बाडे़ में जा घुसी । घास के साथ सारे घोड़े जलकर जख्मी हो गये । राजवैद्य की सलाह और राजा के आदेश पर तीरंदाजों ने सारे बंदरों को मार गिराया । दूर से यह सब देख रहा बृद्ध बंदर दुखी मन से जंगल की तरफ चल पड़ा । अनजाने जंगल में बृद्ध बंदर को जब प्यास लगी तो एक पोखर उसे नजर आया आदतन उसने चारो तरफ गौर किया, वहां पोखर तक प्यास बुझाने पहुचें जानवरों के जाने के तो पदचिन्ह थे पर किसी के लौटते पद चिन्ह नजर नहीं आ रहे थे । बंदर को कुछ शंका हुई पर प्यासा था पानी तो पीना ही था सो एक सरकंड़े की लकड़ी तोड़ दूर से उसके जरिये पानी पीने लगा । तुरंत ही पानी में हलचल हुई और वहां पानी से निकल एक यक्ष सामने आया । बंदर दूर था उसकी पहुंच के बाहर सो कुछ कर न सका वह। तब यक्ष बोला यहां आने वाले तुम पहले प्राणी हो जो मेरा भोजन बनने से बच गये, बंदर तुम तो बहुत बुद्धिमान हो पर अकेले लग रहे हो साथी कहां गये तुम्हारे । बंदर ने उसे अपनी पूरी कथा कह सुनाई यक्ष ने सब सुना और कहा तुम यहा रह तो सकते हो पर शर्त यही होगी कि यहां आने वाले किसी भी प्राणी को तुम नही चेताओगे कि मैं यहा हूं । तुम समझदार हो पर सभी ऐसे नहीं होते हां नासमझी में यदि सही सलाह शामिल हो जाये तो वेबाकूफी को समझदारी में बदलते देर नही लगती । तुम यहां ऐसा कर सकते हो पर इससे मुझे भूखा रहना पडे़गा । बंदर ने उसकी बात मान ली सोचा यही उसकी नियती, उसका श्राप है मेरे बदलने से क्या कुछ बदल जायेगा । दिन कटने लगे एक दिवस वही राजा अपने परिवार के साथ उसी जंगल में शिकार पर आया और रास्ता भटक गया, प्यास से व्याकुल राजपरिवार पानी को तरस रहा था। बंदर ने तुरंत उसे पहचान लिया राजा को देखते ही बंदर को अपने मरते परिजनों की याद आ गई उसका मन क्रोध और बदले से भर उठा । जंहा कही भी पानी हो उसे बंदर डूंढ़ ही लेते है, बंदरों के इस स्वाभाव से परिचित राजपरिवार पानी की लालसा में बंदर के पीछे हो लिया । वृद्ध बंदर उन्हें उसी पोखर में ले गया जहां यक्ष का वास था । पानी देखते ही पूरा राजपरिवार पानी में कूद पड़ा और अंततः यक्ष का भक्षण बना । इस तरह अपनी बुद्धिमानी से वृद्ध बंदर ने न सिर्फ अपनी जान बचाई बल्कि अपने परिजनों की मौत का बदला लिया ।
बुर्जुगों के निर्णयों में दूरगामी सोच के साथ साथ अपने जिंदगी भर के अनुभवों का निचोड़ भी समाहित होता है । हम उन्हें अपने निर्णयों में स्थान दें न दें ! मान सम्मान दें न दें पर अपने दिल में अपने घर में स्थान तो दे ही सकते हैं । और ऐसा करके हम उन पर नही अपने आप पर अहसान करते हैं । क्योकि आप माने न माने आपके पैदा होने से लेकर उनके अंत तक आप उनके ऋणि थे, हैं और रहेंगे …. आपके इर्द गिर्द यदि ऐसा हो रहा हो तो जहां तक हो सके उनकी सोच बदले, ऐसा करने से रोकें उन्हे और यह मानवता पर आपका किया एक अहसान होगा।

Monday 15 December 2014

ताई : विश्‍वंभरनाथ शर्मा कौशिक

''ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे?" कहता हुआ एक पंचवर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा।
बाबू साहब ने दोंनो बाँहें फैलाकर कहा- ''हाँ बेटा,ला देंगे।'' उनके इतना कहते-कहते बालक उनके निकट आ गया। उन्‍होंने बालक को गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमकर बोले- ''क्‍या करेगा रेलगाड़ी?''
बालक बोला- ''उसमें बैठकर बली दूल जाएँगे। हम बी जाएँगे,चुन्‍नी को बी ले जाएँगे। बाबूजी को नहीं ले जाएँगे। हमें लेलगाड़ी नहीं ला देते। ताऊजी तुम ला दोगे, तो तुम्‍हें ले जाएँगे।''
बाबू- “और किसे ले जाएगा?''
बालक दम भर सोचकर बोला- ''बछ औल किछी को नहीं ले जाएँगे।''
पास ही बाबू रामजीदास की अर्द्धांगिनी बैठी थीं। बाबू साहब ने उनकी ओर इशारा करके कहा- ''और अपनी ताई को नहीं ले जाएगा?''
बालक कुछ देर तक अपनी ताई की और देखता रहा। ताईजी उस समय कुछ चि‍ढ़ी हुई सी बैठी थीं। बालक को उनके मुख का वह भाव अच्‍छा न लगा। अतएव वह बोला- ''ताई को नहीं ले जाएँगे।''
ताईजी सुपारी काटती हुई बोलीं- ''अपने ताऊजी ही को ले जा मेरे ऊपर दया रख।'' ताई ने यह बात बड़ी रूखाई के साथ कही। बालक ताई के शुष्‍क व्‍यवहार को तुरंत ताड़ गया। बाबू साहब ने फिर पूछा- ''ताई को क्‍यों नहीं ले जाएगा?''
बालक- ''ताई हमें प्‍याल(प्‍यार), नहीं कलतीं।''
बाबू- ''जो प्‍यार करें तो ले जाएगा?''
बालक को इसमें कुछ संदेह था। ताई के भाव देखकर उसे यह आशा नहीं थी कि वह प्‍यार करेंगी। इससे बालक मौन रहा।
बाबू साहब ने फिर पुछा- ''क्‍यों रे बोलता नहीं? ताई प्‍यार करें तो रेल पर बिठाकर ले जाएगा?''
बालक ने ताउजी को प्रसन्‍न करने के लिए केवल सिर हिलाकर स्‍वीकार कर लिया, परंतु मुख से कुछ नहीं कहा।
बाबू साहब उसे अपनी अर्द्धांगिनी के पास ले जाकर उनसे बोले- ''लो, इसे प्‍यार कर लो तो तुम्‍हें ले जाएगा।'' परंतु बच्‍चे की ताई श्रीमती रामेश्‍वरी को पति की यह चुगलबाजी अच्‍छी न लगी। वह तुनककर बोली- ''तुम्‍हीं रेल पर बैठकर जाओ, मुझे नहीं जाना है।''
बाबू साहब ने रामेश्‍वरी की बात पर ध्‍यान नहीं दिया। बच्‍चे को उनकी गोद में बैठाने की चेष्‍टा करते हुए बोले- ''प्‍यार नहीं करोगी, तो फिर रेल में नहीं बिठावेगा।–क्‍यों रे मनोहर?''
मनोहर ने ताऊ की बात का उत्‍तर नहीं दिया। उधर ताई ने मनोहर को अपनी गोद से ढकेल दिया। मनोहर नीचे गिर पड़ा। शरीर में तो चोट नहीं लगी, पर हृदय में चोट लगी। बालक रो पड़ा।
बाबू साहब ने बालक को गोद में उठा लिया। चुमकार-पुचकारकर चुप किया और तत्‍पश्‍चात उसे कुछ पैसा तथा रेलगाड़ी ला देने का वचन देकर छोड़ दिया। बालक मनोहर भयपूर्ण दॄष्टि से अपनी ताई की ओर ताकता हुआ उस स्‍थान से चला गया।
मनोहर के चले जाने पर बाबू रामजीदास रामेश्‍वरी से बोले- ''तुम्‍हरा यह कैसा व्‍य‍वहार है? बच्‍चे को ढकेल दिया। जो उसे चोट लग जाती तो?''
रामेश्‍वरी मुँह मटकाकर बोली- ''लग जाती तो अच्‍छा होता। क्‍यों मेरी खोपड़ी पर लादे देते थे? आप ही मेरे उपर डालते थे और आप ही अब ऐसी बातें करते हैं।''
बाबू सा‍हब कुढ़कर बोले- ''इसी को खोपड़ी पर लादना कहते हैं?''
रामेश्‍वरी– ''और नहीं किसे कहते हैं, तुम्‍हें तो अपने आगे और किसी का दु:ख-सुख सूझता ही नहीं। न जाने कब किसका जी कैसा होता है। तुम्‍हें उन बातों की कोई परवाह ही नहीं, अपनी चुहल से काम है।''
बाबू- ''बच्‍चों की प्‍यारी-प्‍यारी बातें सुनकर तो चाहे जैसा जी हो,प्रसन्‍न हो जाता है। मगर तुम्‍हारा हृदय न जाने किस धातु का बना हुआ है?''
रामेश्‍वरी– ''तुम्‍हारा हो जाता होगा। और होने को होता है, मगर वैसा बच्‍चा भी तो हो। पराये धन से भी कहीं घर भरता है?''
बाबू साहब कुछ देर चुप रहकर बोले- ''यदि अपना सगा भतीजा भी पराया धन कहा जा सकता है, तो फिर मैं नहीं समझता कि अपना धन किसे कहेंगे?''
रामेश्‍वरी कुछ उत्‍तेजित हो कर बोली- ''बातें बनाना बहुत आसान है। तुम्‍हारा भतीजा है, तुम चाहे जो समझो, पर मुझे यह बातें अच्‍छी नहीं लगतीं। हमारे भाग ही फूटे हैं, नहीं तो यह दिन काहे को देखने पड़ते। तुम्‍हारा चलन तो दुनिया से निराला है। आदमी संतान के लिए न जाने क्‍या-क्‍या करते हैं- पूजा-पाठ करते हैं, व्रत रखते हैं,पर तुम्‍हें इन बातों से क्‍या काम? रात-दिन भाई-भतीजों में मगन रहते हो।''
बाबू साहब के मुख पर घृणा का भाव झलक आया। उन्‍होंने कहा- ''पूजा-पाठ, व्रत सब ढकोसला है। जो वस्‍तु भाग्‍य में नहीं, वह पूजा-पाठ से कभी प्राप्‍त नहीं हो सकती। मेरो तो यह अटल विश्‍वास है।"
श्रीमतीजी कुछ-कुछ रूँआसे स्‍वर में बोलीं– "इसी विश्‍वास ने सब चौपट कर रखा है। ऐसे ही विश्‍वास पर सब बैठ जाएँ तो काम कैसे चले? सब विश्‍वास पर ही न बैठे रहें, आदमी काहे को किसी बात के लिए चेष्‍टा करे।"
बाबू साहब ने सोचा कि मूर्ख स्‍त्री के मुँह लगना ठीक नहीं। अतएव वह स्‍त्री की बात का कुछ उत्‍तर न देकर वहाँ से टल गए।
2
बाबू रामजीदास धनी आदमी हैं। कपड़े की आढ़त का काम करते हैं। लेन-देन भी है। इनसे एक छोटा भाई है उसका नाम है कृष्‍णदास। दोनों भाइयों का परिवार एक में ही है। बाबू रामदास जी की आयु 35 के लगभग है और छोटे भाई कृष्णदास की आयु 21 के लगभग । रामदासजी निस्‍संतान हैं। कृष्‍णदास के दो संतानें हैं। एक पुत्र-वही पुत्र, जिससे पाठक परिचित हो चुके हैं- और एक कन्‍या है। कन्‍या की वय दो वर्ष के लगभग है।
रामदासजी आपने छोटे भाई और उनकी संतान पर बड़ा स्‍नेह रखते हैं- ऐसा स्‍नेह कि उसके प्रभाव से उन्‍हें अपनी संतानहीनता कभी खटकती ही नहीं। छोटे भाई की संतान को अपनी संतान समझते हैं। दोनों बच्‍चे भी रामदास से इतने हिले हैं कि उन्‍हें अपने पिता से भी अधिक समझते हैं।
परंतु रामदास की पत्‍नी रामेश्वरी को अपनी संतानहीनता का बड़ा दु:ख है।वह दिन-रात संतान ही के सोच में घुली रहती हैं। छोटे भाई की संतान पर पति का प्रेम उनकी आँखो में काँटे की तरह खटकता है।
रात के भोजन इत्‍यादि से निवृत्‍त होकर रामजीदास शैया पर लेटे शीतल और मंद वायु का आनंद ले रहे हैं। पास ही दूसरी शैया पर रामेश्‍वरी, हथेली पर सिर रखे, किसी चिंता में डूबी हुई थी। दोनों बच्‍चे अभी बाबू साहब के पास से उठकर अपनी माँ के पास गए थे। बाबू साहब ने अपनी स्‍त्री की ओर करवट लेकर कहा- “आज तुमने मनोहर को बुरी तरह ढकेला था कि मुझे अब तक उसका दु:ख है। कभी-कभी तो तुम्‍हारा व्‍यव‍हार अमानुषिक हो उठता है।''
रामेश्‍वरी बोली- ''तुम्‍ही ने मुझे ऐसा बना रक्‍खा है। उस दिन उस पंडित ने कहा कि हम दोनों के जन्‍म-पत्र में संतान का जोग है और उपाय करने से संतान हो सकती है। उसने उपाय भी बताये थे, पर तुमने उनमें से एक भी उपाय करके न देखा। बस, तुम तो इन्‍ही दोनों में मगन हो। तुम्‍हारी इस बात से रात-दिन मेरा कलेजा सुलगता रहता है। आदमी उपाय तो करके देखता है। फिर होना न होना भगवान के अधीन है।”
बाबू साहब हँसकर बोले- ''तुम्‍हारी जैसी सीधी स्‍त्री भी क्‍या कहूँ? तुम इन ज्‍योतिषियों की बातों पर विश्‍वास करती हो, जो दुनिया भर के झूठे और धूर्त हैं। झूठ बोलने ही की रोटियाँ खाते हैं। ''
रामेश्‍वरी तुनककर बोली- ''तुम्‍हें तो सारा संसार झूठा ही दिखाई पड़ता है। ये पोथी-पुराण भी सब झूठे हैं? पंडित कुछ अपनी तरफ से बनाकर तो क‍हते नहीं हैं। शास्‍त्र में जो लिखा है, वही वे भी कहते हैं, वह झूठा है तो वे भी झूठे हैं। अँग्रेजी क्‍या पढ़ी, अपने आगे किसी को गिनते ही नहीं। जो बातें बाप-दादे के जमाने से चली आई हैं, उन्‍हें भी झूठा बताते हैं।''
बाबू साहब- ''तुम बात तो समझती नहीं, अपनी ही ओटे जाती हो। मैं यह नहीं कह सकता कि ज्‍योतिष शास्‍त्र झूठा है। संभव है,वह सच्‍चा हो, परंतु ज्‍योतिषियों में अधिकांश झूठे होते हैं। उन्‍हें ज्‍योतिष का पूर्ण ज्ञान तो होता नहीं, दो-एक छोटी-मोटी पुस्‍तकें पढ़कर ज्‍योतिषी बन बैठते हैं और लोगों को ठगतें फिरते हैं। ऐसी दशा में उनकी बातों पर कैसे विश्‍वास किया जा सकता है?''
रामेश्‍वरी– ''हूँ, सब झूठे ही हैं, तुम्‍हीं एक बड़े सच्‍चे हो। अच्‍छा, एक बात पूछती हूँ। भला तुम्‍हारे जी में संतान का मुख देखने की इच्‍छा क्‍या कभी नहीं होती?''
इस बार रामेश्‍वरी ने बाबू साहब के हृदय का कोमल स्‍थान पकड़ा। वह कुछ देर चुप रहे। तत्‍पश्‍चात एक लंबी साँस लेकर बोले- ''भला ऐसा कौन मनुष्‍य होगा, जिसके हृदय में संतान का मुख देखने की इच्‍छा न हो? परंतु क्‍या किया जाए? जब नहीं है, और न होने की कोई आशा ही है, तब उसके लिए व्‍यर्थ चिंता करने से क्‍या लाभ? इसके सिवा जो बात अपनी संतान से होती, वही भाई की संतान से हो भी रही है। जितना स्‍नेह अपनी पर होता, उतना ही इन पर भी है जो आनंद उसकी बाल क्रीड़ा से आता, वही इनकी क्रीड़ा से भी आ रहा है। फिर नहीं समझता कि चिंता क्‍यों की जाय।''
रामेश्‍वरी कुढ़कर बोली- ''तुम्‍हारी समझ को मैं क्‍या कहूँ? इसी से तो रात-दिन जला करती हूँ, भला तो यह बताओ कि तुम्‍हारे पीछे क्‍या इन्‍हीं से तुम्‍हारा नाम चलेगा?'''
बाबू साहब हँसकर बोले- ''अरे, तुम भी कहाँ की क्षुद्र बातें लायी। नाम संतान से नहीं चलता। नाम अपनी सुकृति से चलता है। तुलसीदास को देश का बच्‍चा-बच्‍चा जानता है। सूरदास को मरे कितने दिन हो चुके। इसी प्रकार जितने महात्‍मा हो गए हैं, उन सबका नाम क्‍या उनकी संतान की बदौलत चल रहा है? सच पूछो, तो संतान से जितनी नाम चलने की आशा रहती है, उतनी ही नाम डूब जाने की संभावना रहती है। परंतु सुकृति एक ऐसी वस्‍तु है, जिसमें नाम बढ़ने के सिवा घटने की आशंका रहती ही नहीं। हमारे शहर में राय गिरधारीलाल कितने नामी थे। उनके संतान कहाँ है। पर उनकी धर्मशाला और अनाथालय से उनका नाम अब तक चला आ रहा है, अभी न जाने कितने दिनों तक चला जाएगा।
रामेश्‍वरी– ''शास्‍त्र में लिखा है जिसके पुत्र नहीं होता, उनकी मुक्ति नहीं होती ?"
बाबू- ''मुक्ति पर मुझे विश्‍वास नहीं। मुक्ति है किस चिड़िया का नाम? यदि मुक्ति होना भी मान लिया जाए, वो यह कैसे माना जा सकता है कि सब पुत्रवालों की मुक्ति हो ही जाती है ! मुक्ति का भी क्‍या सहज उपाय है? ये कितने पुत्रवाले हैं, सभी को तो मुक्ति हो जाती होगी ?''
रामेश्‍वरी निरूत्तर होकर बोली- ''अब तुमसे कौन बकवास करे ! तुम तो अपने सामने किसी को मानते ही नहीं।''
3
मनुष्‍य का हृदय बड़ा ममत्‍व–प्रेमी है। कैसी ही उपयोगी और कितनी ही सुंदर वस्‍तु क्‍यों न हो, जब तक मनुष्‍य उसको पराई समझता है, तब तक उससे प्रेम नहीं करता। किंतु भद्दी से भद्दी और बिलकुल काम में न आनेवाली वस्‍तु को यदि मनुष्‍य अपनी समझता है, तो उससे प्रेम करता है। पराई वस्‍तु कितनी ही मूल्‍यवान क्‍यों न हो, कितनी ही उपयोगी क्‍यों न हो, कितनी ही सुंदर क्‍यों न हो, उसके नष्‍ट होने पर मनुष्‍य कुछ भी दु:ख का अनुभव नहीं करता, इसलिए कि वह वस्‍तु, उसकी नहीं, पराई है। अपनी वस्तु कितनी ही भद्दी हो, काम में न आनेवाली हो, नष्‍ट होने पर मनुष्‍य को दु:ख होता है, इसलिए कि वह अपनी चीज है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्‍य पराई चीज से प्रेम करने लगता है। ऐसी दशा में भी जब तक मनुष्‍य उस वस्‍तु को अपना बनाकर नहीं छोड़ता, अथवा हृदय में यह विचार नहीं कर लेता कि वह वस्‍तु मेरी है, तब तक उसे संतोष नहीं होता। ममत्‍व से प्रेम उत्‍पन्‍न होता है, और प्रेम से ममत्‍व । इन दोनों का साथ चोलीदामन का-सा है। ये कभी पृथक नहीं किए जा सकते।
यद्यपि रामेश्‍वरी को माता बनने का सौभाग्‍य प्राप्‍त नहीं हुआ था, तथापि उनका हृदय एक माता का हृदय बनने की पूरी योग्‍यता रखता था। उनके हृदय में वे गुण विद्यमान तथा अंतर्निहित थे, जो एक माता के हृदय में होते हैं, परंतु उसका विकास नहीं हुआ था। उसका हृदय उस भूमि की तरह था, जिसमें बीज तो पड़ा हुआ है, पर उसको सींचकर और इस प्रकार बीज को प्रस्‍फुटित करके भूमि के उपर लानेवाला कोई नहीं। इसीलिए उसका हृदय उन बच्‍चों की और खिंचता तो था, परंतु जब उसे ध्‍यान आता था कि ये बच्‍चे मेरे नहीं, दूसरे के है, तब उसके हृदय में उनके प्रति द्वेष उत्पन्‍न होता था, घृणा पैदा होती थी। विशेकर उस समय उनके द्वेष की मात्रा और भी बढ़ जाती थी, जब वह यह देखती थी कि उनके पतिदेव उन बच्‍चों पर प्राण देते हैं, जो उनके(रामेश्‍वरी के) नहीं हैं।
शाम का समय था। रामेश्‍वरी खुली छत पर बैठी हवा खा रही थी। पास उनकी देवरानी भी बैठी थी । दोनों बच्‍चे छत पर दौड़-दौड़कर खेल रहे थे। रामेश्‍वरी उनके खेल को देख रही थी। इस समय रामेश्‍वरी को उन बच्‍चों का खेलना-कूदना बड़ा भला मालुम हो रहा था। हवा में उड़ते हुए उनके बाल, कमल की तरह खिले उनके नन्‍हें -नन्‍हें मुख, उनकी प्‍यारी-प्‍यारी तोतली बातें, उनका चिल्लाना, भागना, लौट जाना इत्‍यादि क्रीड़ाएँ उसके हृदय को शीतल कर रहीं थीं। स‍हसा मनोहर अपनी बहन को मारने दौड़ा। वह खिलखिलाती हुई दौड़कर रामेश्‍वरी की गोद में जा गिरी। उसके पीछे-पीछे मनोहर भी दौड़ता हुआ आया और वह भी उन्‍हीं की गोद में जा गिरा। रामेश्‍वरी उस समय सारा द्वेष भूल गई। उन्‍होंने दोनों बच्‍चों को उसी प्रकार हृदय से लगा लिया, जिस प्रकार वह मनुष्‍य लगाता है, जो कि बच्‍चों के लिए तरस रहा हो। उन्‍होंने बड़ी सतृष्‍णता से दोनों को प्‍यार किया। उस समय यदि कोई अपरिचित मनुष्‍य उन्‍हें देखता, तो उसे यह विश्‍वास होता कि रामेश्‍वरी उन बच्‍चों की माता है।
दोनों बच्‍चे बड़ी देर तक उसकी गोद में खेलते रहे। सहसा उसी समय किसी के आने की आहट पाकर बच्‍चों की माता वहाँ से उठकर चली गई।
''मनोहर, ले रेलगाड़ी।'' कहते हुए बाबू रामजीदास छत पर आए। उनका स्‍वर सुनते ही दोनों बच्‍चे रामेश्‍वरी की गोद से तड़पकर निकल भागे। रामजीदास ने पहले दोनों को खूब प्‍यार किया, फिर बैठकर रेलगाड़ी दिखाने लगे।
इधर रामेश्वरी की नींद टूटी। पति को बच्‍चों में मगन होते देखकर उसकी भौहें तन गईं । बच्‍चों के प्रति हृदय में फिर वही घृणा और द्वेष भाव जाग उठा।
बच्‍चों को रेलगाड़ी देकर बाबू साहब रामेश्‍वरी के पास आए और मुस्‍कराकर बोले- ''आज तो तुम बच्‍चों को बड़ा प्‍यार कर रही थीं। इससे मालूम होता है कि तुम्‍हारे हृदय में भी उनके प्रति कुछ प्रेम अवश्‍य है।''
रामेश्‍वरी को पति की यह बात बहुत बुरी लगी। उसे अपनी कमजोरी पर बड़ा दु:ख हुआ। केवल दु:ख ही नहीं, अपने उपर क्रोध भी आया। वह दु:ख और क्रोध पति के उक्‍त वाक्‍य से और भी बढ़ गया। उसकी कमजोरी पति पर प्रगट हो गई, यह बात उसके लिए असह्य हो उठी।
रामजीदास बोले- ''इसीलिए मैं कहता हूँ कि अपनी संतान के लिए सोच करना वृथा है। यदि तुम इनसे प्रेम करने लगो, तो तुम्‍हें ये ही अपनी संतान प्रतीत होने लगेंगे। मुझे इस बात से प्रसन्‍नता है कि तुम इनसे स्‍नेह करना सीख रही हो।''
यह बात बाबू साहब ने नितांत हृदय से कही थी, परंतु रामेश्‍वरी को इसमें व्‍यंग की तीक्ष्‍ण गंध मालूम हुई। उन्‍होंने कुढ़कर मन में कहा- ''इन्‍हें मौत भी नहीं आती। मर जाएँ, पाप कटे! आठों पहर आँखो के सामने रहने से प्‍यार को जी ललचा ही उठता है। इनके मारे कलेजा और भी जला करता है।''
बाबू साहब ने पत्‍नी को मौन देखकर कहा- ''अब झेंपने से क्‍या लाभ। अपने प्रेम को छिपाने की चेष्‍टा करना व्‍यर्थ है। छिपाने की आवश्‍यकता भी नहीं।"
रामेश्‍वरी जल-भभुनकर बोली- "मुझे क्‍या पड़ी है, जो मैं प्रेम करूँगी? तुम्‍हीं को मुबारक रहे। निगोड़े आप ही आ-आ के घुसते हैं। एक घर में रहने में कभी-कभी हँसना बोलना पड़ता ही है। अभी परसों जरा यों ही ढकेल दिया, उस पर तुमने सैकड़ों बातें सुनाईं। संकट में प्राण हैं, न यों चैन, न वों चैन।"
बाबू साहब को पत्‍नी के वाक्‍य सुनकर बड़ा क्रोध आया। उन्‍होंने कर्कश स्‍वर में कहा- "न जाने कैसे हृदय की स्‍त्री है ! अभी अच्‍छी–खासी बैठी बच्‍चों से प्‍यार कर रही थी। मेरे आते ही गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी । अपनी इच्‍छा से चाहे जो करे, पर मेरे कहने से बल्लियों उछलती है। न जाने मेरी बातों में कौन-सा विष घुला रहता है। यदि मेरा कहना ही बुरा मालुम होता है, तो न कहा करूँगा। पर इतना याद रखो कि अब कभी इनके विषय में निगोड़े-सिगोड़े इत्‍यादि अपशब्‍द निकाले, तो अच्‍छा न होगा । तुमसे मुझे ये बच्‍चे कहीं अधिक प्‍यारे हैं।''
रामेश्‍वरी ने इसका कोई उत्‍तर न दिया । अपने क्षोभ तथा क्रोध को वे आँखो द्वारा निकालने लगीं।
जैसे-ही-जैसे बाबू रामजीदास का स्‍नेह दोनों बच्‍चों पर बढ़ता जाता था, वैसे-ही-वैसे रामेश्‍वरी के द्वेष और घृणा की मात्रा भी बढ़ती जाती थी। प्राय: बच्‍चों के पीछे पति-पत्‍नी में कहा सुनी हो जाती थी, और रामेश्‍वरी को पति के कटु वचन सुनने पड़ते थे। जब रामेश्‍वरी ने यह देखा कि बच्‍चों के कारण ही वह पति की नज़र से गिरती जा रही हैं, तब उनके हृदय में बड़ा तूफा़न उठा । उन्‍होंने यह सोचा- पराये बच्चों के पीछे यह मुझसे प्रेम कम करते जाते हैं, हर समय बुरा-भला कहा करते हैं, इनके लिए ये बच्‍चे ही सब कुछ हैं, मैं कुछ भी नहीं। दुनिया मरती जाती है, पर दोनों को मौत नहीं। ये पैदा होते ही क्‍यों न मर गए। न ये होते, न मुझे ये दिन देखने पड़ते। जिस दिन ये मरेंगे, उस दिन घी के दिये जलाउँगी। इन्‍होंने ही मेरे घर का सत्‍यानाश कर रक्‍खा है।च्‍चों और मुस्‍कराकर बोले-''आज
4
इसी प्रकार कुछ दिन व्‍यतीत हुए। एक दिन नियमानुसार रामेश्‍वरी छत पर अकेली बैठी हुई थीं उनके हृदय में अनेक प्रकार के विचार आ रहे थे। विचार और कुछ नहीं, अपनी निज की संतान का अभाव, पति का भाई की संतान के प्रति अनुराग इत्‍यादि। कुछ देर बाद जब उनके विचार स्‍वयं उन्‍हीं को कष्‍टदायक प्रतीत होने लगे, तब वह अपना ध्‍यान दूसरी और लगाने के लिए टहलने लगीं।
वह टहल ही रही थीं कि मनोहर दौड़ता हुआ आया । मनोहर को देखकर उनकी भृ‍कुटी चढ़ गई। और वह छत की चहारदीवारी पर हाथ रखकर खड़ी हो गईं।
संध्या का समय था । आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ रही थीं । मनोहर कुछ देर तक खड़ा पतंगों को देखता और सोचता रहा कि कोई पतंग कटकर उसकी छत पर गिरे, क्‍या आनंद आवे ! देर तक गिरने की आशा करने के बाद दौड़कर रामेश्‍वरी के पास आया, और उनकी टाँगों में लिपटकर बोला- ''ताई, हमें पतंग मँगा दो।'' रामेश्‍वरी ने झिड़क कर कहा- ''चल हट, अपने ताऊ से माँग जाकर।''
मनोहर कुछ अप्रतिभ-सा होकर फिर आकाश की ओर ताकने लगा। थोड़ी देर बाद उससे फिर रहा न गया। इस बार उसने बड़े लाड़ में आकर अत्‍यंत करूण स्‍वर में कहा- ''ताई मँगा दो, हम भी उड़ाएँगे।''
इन बार उसकी भोली प्रार्थना से रामेश्‍वरी का कलेजा कुछ पसीज गया। वह कुछ देर तक उसकी और स्थिर दृष्टि से देखती रही । फिर उन्‍होंने एक लंबी साँस लेकर मन ही मन कहा- यह मेरा पुत्र होता तो आज मुझसे बढ़कर भाग्‍यवान स्‍त्री संसार में दूसरी न होती। निगोड़ा-मरा कितना सुंदर है, और कैसी प्‍यारी- प्‍यारी बातें करता है। यही जी चाहता है कि उठाकर छाती से लगा लें।
यह सोचकर वह उसके सिर पर हाथ फेरनेवाली थीं कि इतने में उन्‍हें मौन देखकर बोला- ''तुम हमें पतंग नहीं मँगवा दोगी, तो ताऊजी से कहकर तुम्‍हें पिटवायेंगे।''
यद्यपि बच्‍चे की इस भोली बात में भी मधुरता थी, तथापि रामेश्‍वरी का मुँह क्रोध के मारे लाल हो गया। वह उसे झिड़क कर बोली- ''जा कह दे अपने ताऊजी से देखें, वह मेरा क्‍या कर लेंगे।''
मनोहर भयभीत होकर उनके पास से हट आया, और फिर सतृष्‍ण नेत्रों से आकाश में उड़ती हुई पतंगों को देखने लगा।
इधर रामेश्‍वरी ने सोचा- यह सब ताउजी के दुलार का फल है कि बालिश्‍त भर का लड़का मुझे धमकाता है। ईश्‍वर करे, इस दुलार पर बिजली टूटे।
उसी समय आकाश से एक पतंग कटकर उसी छत की ओर आई और रामेश्‍वरी के उपर से होती हुई छज्‍जे की ओर गई। छत के चारों ओर चहार-दीवारी थी । जहाँ रामेश्‍वरी खड़ी हुई थीं, केवल वहाँ पर एक द्वार था, जिससे छज्‍जे पर आ-जा स‍‍कते थे। रामेश्‍वरी उस द्वार से सटी हुई खड़ी थीं। मनोहर ने पतंग को छज्‍जे पर जाते देखा । पतंग पकड़ने के लिए वह दौड़कर छज्‍जे की ओर चला। रामेश्वरी खड़ी देखती रहीं । मनोहर उसके पास से होकर छज्‍जे पर चला गया, और उससे दो ‍फिट की दूरी पर खड़ा होकर पतंग को देखने लगा। पतंग छज्‍जे पर से होती हुई नीचे घर के आँगन में जा गिरी । एक पैर छज्जे की मुँड़ेर पर रख‍कर मनोहर ने नीचे आँगन में झाँका और पतंग को आँगन में गिरते देख, वह प्रसन्‍नता के मारे फूला न समाया। वह नीचे जाने के लिए शीघ्रता से घूमा, परंतु घूमते समय मुँड़ेर पर से उसका पैर फिसल गया। वह नीचे की ओर चला । नीचे जाते-जाते उस‍के दोनों हाथों में मुँड़ेर आ गई । वह उसे पकड़कर लटक गया और रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्‍लाया ''ताई!''
रामेश्‍वरी ने धड़कते हुए हृदय से इस घटना को देखा। उसके मन में आया कि अच्‍छा है, मरने दो, सदा का पाप कट जाएगा। यही सोच कर वह एक क्षण रूकी। इधर मनोहर के हाथ मुँड़ेर पर से फिसलने लगे। वह अत्‍यंत भय तथा करुण नेत्रों से रामेश्‍वरी की ओर देखकर चिल्‍लाया- "अरी ताई!" रामेश्‍वरी की आँखें मनोहर की आँखों से जा मिलीं। मनोहर की वह करुण दृष्टि देखकर रामेश्‍वरी का कलेजा मुँह में आ गया। उन्‍होंने व्‍याकुल होकर मनोहर को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। उनका हाथ मनोहर के हाथ तक पहुँचा ही कि मनोहर के हाथ से मुँड़ेर छूट गई। वह नीचे आ गिरा। रामेश्‍वरी चीख मार कर छज्‍जे पर गिर पड़ीं।
रामेश्‍वरी एक सप्‍ताह तक बुखार से बेहोश पड़ी रहीं। कभी-कभी जोर से चिल्‍ला उठतीं, और कहतीं- "देखो-देखो, वह गिरा जा रहा है- उसे बचाओ, दौड़ो- मेरे मनोहर को बचा लो।" कभी वह कहतीं- "बेटा मनोहर, मैंने तुझे नहीं बचाया। हाँ, हाँ, मैं चाहती तो बचा सकती थी- देर कर दी।" इसी प्रकार के प्रलाप वह किया करतीं।
मनोहर की टाँग उखड़ गई थी, टाँग बिठा दी गई। वह क्रमश: फिर अपनी असली हालत पर आने लगा।
एक सप्‍ताह बाद रामेश्‍वरी का ज्‍वर कम हुआ। अच्‍छी तरह होश आने पर उन्‍होंने पूछा- "मनोहर कैसा है?"
रामजीदास ने उत्‍तर दिया- "अच्‍छा है।"
रामेश्‍वरी- "उसे पास लाओ।"
मनोहर रामेश्‍वरी के पास लाया गया। रामेश्‍वरी ने उसे बड़े प्‍यार से हृदय से लगाया। आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई, हिचकियों से गला रुँध गया। रामेश्‍वरी कुछ दिनों बाद पूर्ण स्‍वस्‍थ हो गईं। अब वह मनोहर और उसकी बहन चुन्‍नी से द्वेष नहीं करतीं। और मनोहर तो अब उसका प्राणाधार हो गया। उसके बिना उन्‍हें एक क्षण भी कल नहीं पड़ती।