Thursday 4 February 2016

मध्यमवर्ग में सुगबुगााहट :

सामाजिक मानसिकताओं पर मेरा चिंतन जादा होता है, गतिशील राजनीति पर लिखने से मै हमेशा कतराता हूं कारण सिर्फ इतना की कहना सुनना वहाँ अच्छा लगता है जहां कुछ मिलने की उम्मीद हो पर मैने राजनेताओं को हमेशा हमसे लेते हुये ही देखा कभी वोट, हर पल टेक्स, कभी समर्थन और बदले में हमेशा हमने उम्मीद, झांसा और इन्तजार ही पाया है.. कैसे एक सरकारी अस्पताल पर सौ, सवासौ प्रायवेट अस्पताल, दो चार निम्न/उच्चतर शिक्षा संस्थानों पर हजार दो हजार प्रायवेट शिक्षण संस्था, एकाध परिवहन व्यवस्था पर हजारों प्रायवेट परिवहन व्यवस्था, एक सरकारी एयर लाईन पर दसेक प्रायवेट एयर लाईन, पुछकटी वाटर सप्लाई पर हजारों प्रायवेट वाटर पैकेजिंग व्यवस्था हां सिर्फ एक रेल यातायात ही ऐसा है जिसमें प्रायवेटाइजेशन नही है पर वहां ओपनिग के साथ ही अगले तीन महिने तक टिकिट चमत्कारी तरीके से नदारत और वो लोगों का न खत्म होने वाला इंतजार ! सरकारी रोजगार पिछले पच्चीस साल से गायब अब तक बैकलाग ही चल रहा है । हां हजारों प्रायवेट कंपनियां रोजगार जरूर दे रही है । चलिये इतना तो शुक्र है कि हमें हमारी जरूरते प्रायवेट प्लेटफार्म पर मिल तो रही है, पर कैसे ? घर परिवार के बहुत से आर्थिक समझौतों के बाद, अब प्रश्न ये उठता है कि इन प्रायवेट प्लेटफार्मो में ये वेलगाम आर्थिक उद्दंड़ता आखिर आई कहां से । तो धूमफिर कर ये दायरा प्रजातांत्रिक राजनेताओं की नियत पर जाकर खत्म हो जाता है ।
हमारे एक जिलाअध्यक्ष थे, उस समय उनसे मिलने का सौभाग्य यदा कदा मिलते रहता था बड़े सुलझे हुये व्यक्तित्व थे, एक बार के वार्तालाप में उन्होने कहा था ये नेता लोग सोचते है कि देश हम चला रहे है, गधे हैं सब के सब यदि देश को यू ही नेता विहीन भी छोड़ दिया जाय तब भी उन्नीस बीस के अंतर पर देश यो ही चलता रहेगा, भ्रस्टाचार तो इनके दादे भी नही रोक सकते ये हट जाये तो बल्कि सरकार चलाने का बहुत सा पैसा बच जायेगा हाई लेबिल का भ्रस्टाचार खत्म हो जायेगा क्योकि पार्टी फन्ड़िग खत्म हो जायेगी चुनाव का अपव्यय खत्म हो जायेगा और जनता झांसों से निकल वास्तविकता के धरातल पर आ जायेगी। 
सोचो तो उनकी सोच पुखता लगती है, ये नेता कहने को तो महाबली पर इतने बेचारे है कि जनता के विपरीत (सभी को पता है कि हमारी जनता का क्या मारल हैे) एक शब्द भी नही कह सकते काला, सफेद, पीला, हरा, नीला सब इनके लिये सही और यदि गलत कहना भी होता है तो ऐजेन्सियों से कहलवाते हैं। देश राजनीति से कभी नही चलता नेता संविधान संचालन की निगरानी जरूर करते हैं पर संविधान का पालन तो नौकरशाही के ही हिस्से में है और ये एक सेमीहिडन फेक्ट है । सभी कुछ कानून के दायरे में है जिसमें ये नेता भी आते है इससे हटकर तो कोई जा ही नही सकता, कानून को प्रजातंत्र में सर्वोच्च कहा भी गया है पर कानून को पालने वाले नेता कही से भी नही है, पूरे देश में नौकरशाही को ही कानून मनबाने का हक है । कानून बनाने का हक जनता प्रतिनिधि की हैसियत से इन नेताओं को जरूर है (उस समय विपक्ष जैसा कुछ नही था, यदि होता तो शायद कानून बनाते बनाते ही कानून की धज्जियां उड़ जाती) पर फालतू कानून, जरूरी कानून बनाने बदलने में तो इन अधिकृत नेताओं को भी ऐड़ी चोटी का जोर लगाने के पश्चात् भी कुछ भी हांसिल नही हो रहा है । 
हमसे कर संकलित करके आखिर ये नेता कर क्या रहे है सभी कुछ तो प्रायवेटाइजेसन से कराया जा रहा है ? यदि हम ऐसा सोचते हैं तो गलत है, बहुत कुछ हो रहा है अंदर ही अंदर प्रायवेटाइजेसन की इस फ्लड में रिस्तेदारो को अर्न दिया जा रहा वोट गेनिग के लिये निचले तबके की मजबूरी अहसानित की जा रही है और पार्टी को अजर अमर बनाने हेतु फंड पर फंड इकट्ठा कर पार्टी बाल्ट बनाया जा रहा है और इन इफरात चुनावी खर्चे का हमाली बैल हर संभावित रास्ते से इस जन के धन को बनाया जा रहा है । और हम है कि इनकी तरफ कुछ पाने की आश लगाये मुह वाये ताक रहे है । 
मिलता है पर सभी को नही, एक विरोधाभास बार बार टीसता है मेरे एक मित्र ने सीमित पूंजी मेें रेडीमेट कपड़े की दुकान डाली, दो साल में ही पूंजी की कमी के कारण इस प्रतिस्पर्धी व्यापार में वह व्यापार से बाहर हो गया, पूंजी भी गई व्यापार भी गया परिवार भी बिखर गया पर पीठ पर हाथ रखने वाला कोई नही । बड़ा त्रास आता है अपने पर और जलन भी होती है उन वोट बैंकों से जहां ओले पड़े, गेरूआ लगे, सूखा पड़े, बाढ़ आये, बरसात कम हो, बरसात जादा हो हर मुसीबत में पैसा लेकर सरकार उनके दरवाजे पर खड़ी रहती है और पैसा भी किसका ? हमारा जो हम विकास के नाम पर टेक्स के रूप में सरकार को देते है । ये सोच कर तो और भी मन भर आता है कि उन तथा कथित बेचारों का भारतीय आर्थिकी मे कर के रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कितना योगदान है क्योकि वो बेचारे तो न टेक्स भर सकते है न टेक्सेवल आधुनिक सुविधाओं का क्रय बिक्रय या उपयोग ही कर सकते है और भी बहुत सारी सुविधाओं की जरूरत है उन बेचारों के लिये ! बच्चों की पढ़ाई, बच्चों को साइकिल, उनके मां बाप की तीरथ यात्रा, उनकी बिटिया की शादी ! सबके लिये हम हैं न ! गरीब तो गरीब पटैल (रूरल इलाकों के सम्पन्न) तक मजा ले रहे है इस सरकारी छांव का, कारण झुंड़ जो है उनकी मुट्ठी में पर कस्बाई मध्यम वर्ग.. मोहल्ले पड़ोस की तो छोड़िये बीबी, बच्चे तक वोट न डाले घर प्रमुख के कहने पर, समझदार जो हैं.. तब यही लगता है ऐसी समझदारी से तो वो झुंड़ बाले बुद्धु ज्यादा मजे में है, पर हमे हमारे बच्चों को, हमारे मां बाप को बेचारा समझने की शायद हमारे ही नेता जरूरत नही समझते । 
दूसरा तर्क यदि इतनी गहराई तक मदद का जजबा है तो हम सलाम करते है आपके उस जजबे को पर यह सब सरकारी खर्च पर नही पार्टी फंड से होना चाहिये क्योकि जनता विकास के नाम पर टेक्स अदा करती है और पार्टियों के इस कदरदानी जजबे को विकास तो कहीं से नही माना जा सकता । सरकार की नजर हर समय फंड (कार्पोरेट) या फिर झुंड (गरीब/किसान) पर ही रहती है मध्यम की मानसिकता/जरूरते तो नेताओं को सिर्फ छाया के रूप में नजर आती है और छाया तो जरूरत विहीन (नीडलेस शेडो) ही होती है। 
यहां मेरा कहने का यह मतलब बिलकुल नही है कि गरीबी की मदद न की जाये, मदद करो पर जितनी यथोचित हो दूसरों के हिस्से में से दे दे कर उन्हें नकारा तो ना बनाओ । हर चीज उनके हाथ में थमाते गये तो सामाजिक संतुलन गड़बडा जायेगा मानसिकतायें तुलना करने लग जायेंगी और ऐसा होने भी लगा है । 
लोगों को ये लग सकता है कि यह सब स्थिर मस्तिष्क का चिंतन न हो, सब कुछ तो हो रहा है मिडिल ग्रुप में पर मेरा निवेदन है कि मेट्रो या उनके समकक्षों को छोड़ दिया जाय फिर लखनऊ, नागपुर, जबलपुर, हैदरावाद, चंड़ीगढ, जैसे सेंटरो को नाकते हुये इन बी क्लास सिटी के अतिरिक्त कस्बाई शहरों की हजारों में एक श्रृखला है जहां करोड़ों मध्यम वर्गीय अपनी थोड़ी बहुत अच्छी जिंदगी की चाह में इस असंगत प्रजातंत्र को जी रहे है। सही कहा है केजरीवाल ने कि प्लेन से उतरने के बाद हबाई अड्डे से लेकर जहां तक सड़क उन्हें ले जाती है वहां तो हर कहीं माडल सिटी ही है और ये सड़क वायपास होे जब उन दीन हीन गांवो तक पहुचाती है जिनकी चिंता हर राजनैतिक पार्टी के नेताओं को देवदूत सा बना देती है तब उसके बीच का वो घना शहर तो कही गुम होकर ही रह जाता है जो राह में कही पड़ा ही नही और उसके अंदर फिर और गहरे और फिर उससे और गहरे तो शायद अंधेरा गहराता ही जाता है । 

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