Wednesday 27 January 2016

"अभिव्यक्ति की आजादी"



जो भी कुछ हम सुनते है और फिर वैसा होते देखते हैँ तो हमारे मन में एक धारणा बनती है, विषय केँद्र में होता है ..भली रही तो सकारात्म और बुरी रही तो नकारात्मक । राजनीति मेरा सीधा बिषय कभी नहीँ रही हाँ बिषयों से जुड़ी राजनिति पर में जरूर चर्चा करता हूं आज देश के हालतों में भी यही हो रहा है सामाजिक जद्दोजेहद में लोग राजनीति ठूसने की कोशिश कर रहे है और सिर्फ कोशिश ही नहीं अपने सोचे परिणाम को पाने का हक भी जता बैठे है।


सामाजिक आपेक्षाऔ और राजनितिक बाध्यताओं के बीच गहरी खाई होती  है पर इसे हम अक्सर नजरअंदाज करके ही अपनी बात रखते है , समाज की सोच कभी भी संतुलित नहीं होती और प्रजातंत्र में समाज से ही निर्मित राजनिति से बना संविधान कभी असंतुलित हो नहीं सकता तो असंतोष और संवादहीनता जैसी स्थिति को टालने के लिये इन दोनों बिग ऑब्जेक्ट की खाई को पाटने हेतु एक सकरा सेतु संविधान में दिया गया "अभिव्यक्ति की आजादी" ।

हम ये शुरू से स्वीकार करते चले आ रहे हैँ की 1950 से लेकर अब तक ये देश शिक्षा के क्षेत्र में उतनी तरक्की नहीं कर पाया और इसका कारण अब तक सामाजिक स्थिति और आर्थिक कमी को देते रहे हैँ तो सत्तर प्रतिशत आवादी अब भी यहां ऐसी है जो निर्णयों का चयन अपनी बुद्धि से ना कर दूसरों के फैसलों का पीछा करती है । तो ये तो तय रहा कि यहाँ माहौल बना कर सही गलत कुछ भी कराया जा सकता है । और यही वो सामाजिक मर्मस्थल (लूज़ पोल) है जिसे पकड़ समाज के ही सौ पचास कुत्सित बुद्धि के अवसरवादी अपने स्वार्थ के अनुरूप सामाजिक माहौल बनाने में सफल होते चले आ रहे है । 

पीछे बहुत कुछ सही भी हुआ है इससे , देश को मिली आजादी भी इसी माहौल की सकारात्मक परिणीति थी पर आज के बनते माहौल ने देश को फिर से अस्थिरता की ओर धकेल दिया है । स्वंत्रता की लड़ाई का जब भी जिक्र आता है लोगो द्वारा झेली गई मुसीबत , दुःख दर्द हिंसा इसमें स्वतः समाहित होती है पर अंत में सुखद परिणाम भी प्रदान कर जाती है पर आज निर्मित माहौल से क्या किसी सुखद सकारात्मक परिणाम की आपेक्षा की जा सकती है ? 

माहौल के पीछे दौड़ता यह अंधानुकरण उन सौ पचास विघ्नसंतोषियों का अस्वमेघ बढ़ाये चला जा रहा है,  मेरा इस आर्टिकल को लिखने का मकसद यही है कि लोग ये सोचे की "अभिव्यक्ति की आजादी" आखिर क्या है इसका मतलब , माहौल से इसे जोड़ कर ना सोचें तर्किकता का प्रयोग करें । संविधान ने इसकी वर्जनाएँ स्वविवेक पर छोड़ी है तो हमें ही ये तय करना है की इसकी सीमायें रचनात्मकता तक सीमित रखें या फिर विध्वंस तक इसे धकेलते ले जायें।
देश में अभिव्यक्ति की आजादी तो जैसी थी वैसी ही है, हाँ पिछले एक दो सालों में इस आजादी को दबाने की एक नई प्रवृति जरूर उन्मत हुई है । भला जिस वाक्य में आजादी शब्द जुड़ा हो उसे किसी संघ या समुदाय द्वारा कैसे स्वनिश्चित दिशा और दशा में बांधा जा सकता है पर चूँकि इस दमन प्रवृति से नई सरकार को पोषण मिलना है इसलिये दोनों एक दूसरे के पूरण पोषक बन गये है । परिणाम में अभिव्यक्ति की आजादी तो है पर लोग अभिव्यक्त करने से डरने जरूर लगे है .. और जब ऐसा होने लगा है तो कहां रह गई अब देश में अभिव्यक्ति की आजादी ?

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